
महाराष्ट्र के ‘विलेज ऑफ बुक्स’ में दरवाज़ों पर ताले नहीं मिलते, मिलता है सिर्फ स्वागत
पंचगनी की दिन भर की यात्रा अपने पड़ोसियों पर भरोसा करने की एक सीख थी
मुंबई जैसे शहर में, पड़ोसियों से बातचीत सिर्फ कुछ दस सेकंड के लिए ही सीमित होती है, वह भी तब जब आप अकस्मात् ही लिफ्ट में टकरा जाएँ। अगर आपके नेटवर्क की बात करें, तो बिल्डिंग में सबसे पहले आपको राजू चौकीदार,नीलम मौसी और प्रेस वाले भइया ही याद आयेंगे। लेकिन इस बार वीकेंड में जब मैं पंचगनी गई, तो वहां स्थित विलेज ऑफ बुक्स से मुझे कम्युनिटी लिविंग के महत्व और पड़ोसियों से प्यार का सबक मिला।
भारत की ‘स्ट्राबैरी की राजधानी-पंचगनी’ से करीब पंद्रह मिनट की दूरी पर, एक बढ़ा सा हरा बोर्ड भिलार की ओर इशारा करता है, जिसे अब ‘पुस्तकांच गांव’ या ‘विलेज ऑफ बुक्स’ कहा जाता है। साल 2017 में, महाराष्ट्र के शिक्षा मंत्री विनोद तावडे ने इस गुमनाम गांव को किताबों की नगरी बनाने का प्रस्ताव दिया था। उन्होंने गांव वालों से आग्रह किया कि वे लोग अपने घर के एक कमरे को लाइब्रेरी में बदल दें, और इसे पूरा साल पब्लिक के लिये खुला रखें। पुस्तकांच गांव के, साइट ऑफिसर, राजेश जाधव ने बताया, “गांववालों ने इस बात को ख़ुशी से स्वीकारा। अब टूरिस्ट भिलार आते हैं और इससे मराठी साहित्य को काफी बढ़ावा मिल रहा है। कुछ गांववाले पैसा कमाने के लिये घरों में टूरिस्टों के रहने का प्रबंध भी करने लगे हैं।”
मैं खुद एक ऐसे ही दो मंज़िला घर के सामने खड़ी थी, जहां एक दीवार पर छत्रपति शिवाजी का चित्र बना हुआ था। मैंने जब उस घर का दरवाज़ा खटखटाया, तो किसी ने भी जवाब नहीं दिया। जैसे ही निराश होकर मैं वहां से निकलने लगी, तो सामने खेलती हुई लड़की ने पूछा, “दीदी, आप यहां किताबों के लिये आई हो? तो उसका दरवाज़ा दूसरा है।”
उसने मुझे बताया कि मैं बिना दरवाज़ा खटखटाये ‘विलेज ऑफ बुक्स’ के अंदर जा सकती हूं, वहां कोई डोरबेल भी नहीं थी। मैं अचानक किसी अजनबी के घर में बैठकर उनकी छोटी सी लाइब्रेरी देख रही थी। मैंने देखा कि घर का मालिक भारत और पाकिस्तान वर्ल्डकप देख रहा था, और उसकी पत्नी रसोई में बैठी टमाटर काट रही थी। शायद उन्हें मेरे आने का पता ही नहीं चला या फिर वे लोग मुझे परेशान नहीं करना चाहते थे। कुछ देर बाद महिला मेरे लिये चाय और पोहे लेकर आई। उसने मुझसे मेरा नाम तक नहीं पूछा। यकीन मानिये यह सब सच था। पुस्तकांच गांव ऐसे ही काम करता है। यह विश्वास और अपार आतिथ्य पर ही पनप रहा है।
यहाँ किताबें राज्य के मराठी विकास संस्था द्वारा दी गई हैं और इनमें नारीवाद, प्रतियोगी-परीक्षा, इतिहास, राजनीति, उपन्यास और आत्म-सुधार जैसे कई विषयों को शामिल किया गया है।
भीखू भिलारे, गांव के उन तीस लोगों में से हैं, जिनके घर में पब्लिक लाइब्रेरी है। उनकी इस लाइब्रेरी में ढाई सौं से भी ज़्यादा किताबें पर्यावरण और स्थिरता पर हैं। भीखू के पोते, आशीष भिलारे, से जब मैंने पूछा कि अपनी निजी जगह पर अजनबियों का स्वागत करना असुरक्षित नहीं होता, तो उसके जवाब ने मेरा मुंह बंद कर दिया। उसने कहा, “शहर के लोग ही ऐसा सोचते हैं। हमारा गांव एक बड़े परिवार की तरह है और हम लोगों पर भरोसा करना जानते हैं। साल 2017 से, मेरे घर रोज़ाना करीब बीस मेहमान आते हैं, लेकिन आज तक घर से कुछ गायब नहीं हुआ।”

ज़्यादा से ज़्यादा, कोई एक या दो किताबें गायब हुई होंगी, पर भिलारे इस मामले में भी काफी दरियादिल हैं। भीखू का मानना है, “अगर कोई किताब ले भी गया है, तो पढ़ने के लिए ही ले गया होगा, और किताबें तो पढ़ने के लिये ही बनी है। इसलिये हम इस बारे में ज़्यादा शोर-शराबा नहीं करते।”
इस पहल से भीखू के परिवार को काफी फायदा हुआ है। उनके स्ट्राबैरी के खेत हैं, और स्ट्राबैरी के मौसम में, अक्सर मेहमान उनके खेत के फल खरीद कर ले जाते हैं।
भीखू ने मुझे सलाह दी कि मैं उसके दोस्त के होटल ‘कमल निवास’ का भी भ्रमण करूँ। तीन-मंज़िला यह होटल नारीवादी साहित्य का केंद्र है। लॉबी एक दोगुनी साइज़ की लाइब्रेरी थी, जब मैं वहां पहुंची, वहां तीन और लोग किताबों का मज़ा ले रहे थे। मालिक का कुछ अता-पता नहीं था। वहां के केयरटेकर ने मुझे लाइब्रेरी और होटल के पीछे का एरिया दिखाया, जहां बोनफायर का भी इंतज़ाम था।
जाधव ने बताया, “इन पहाड़ों पर सबसे ज़्यादा भीड़ गर्मियों में होती है, पर बारिश शुरू होते ही लोग बाहर नहीं निकल पाते, तो ऐसे समय में टूरिस्ट यहां आकर एकांत का मज़ा लेते हैं। यह छोटी-छोटी लाइब्रेरियां उनके लिए एक खुशहाल जगह बन जातीं हैं।
देर शाम मुझे एहसास हुआ, कि खुद की सुरक्षा की जरूरत ने मुझे संदेह और अविश्वास से भर दिया है। मेरा शहरी रहन-सहन, ऊंची दीवारों के बीच चौबीस घंटे की निगरानी में सिमटकर रह गया है। अकेले रहने का नतीजा यह है, कि पारिवारिक व्हाट्सएप ग्रुप म्यूट हो गये हैं और हर काम में अपनी नाक घुसाने वाले रिश्तेदारों से चिड़ होने लगी है। पर इस बीच, मैं कहीं-न-कहीं वह सादा जीवन जीना भूल गई हूं, जो मेरी दादी की कहानियों का हिस्सा हुआ करता था। “हमारे पुश्तैनी घर में तेरह लोग एक साथ रहते थे। खुला घर था, और हमें कभी भी डर नहीं लगता था,” वह बताती थी। “जैसे-जैसे समय बदल रहा है, लोग और भी ज़्यादा असुरक्षित होते जा रहे हैं। वह दिन कब आएगा, जब आप सही मायने में जीवन जीना शुरू करेंगे?”