जान जाए, पर लाश नहीं
वह किसी भूत से नहीं डरती – खुद के भूत से भी नहीं
मुझे एक लाश को दफ़नाने के लिए सबसे उपयुक्त स्थान पता है। यहीं हमारे बगीचे में, चंपा के पेड़ के ठीक नीचे, जहाँ हर समय सफ़ेद सुगन्धित फूल, हरी घास पर गिरते रहते हैं। सोने पे सुहागा हो, यदि उस पेड़ पर एक साइन बोर्ड भी लगा दिया जाये जो नीचे दबे हुए क्षय होते शरीर की उपस्थिति को दर्शाये। हालांकि शब्द यहीं हों, यह ज़रूरी नहीं, बस लाश मेरी होनी चाहिए।
मैंने बेझिझक अपनी यह इच्छा अपने जीवनसाथी के सामने स्पष्ट कर दी, फिर भी कहीं ना कहीं ऐसा लगता है की ऐसी कई वजहें हो सकती हैं, जो मेरी इच्छापूर्ति की राह में रोड़ा अटकाए। क्या पता कल को, उसे अल्झाइमर हो जाये, और वो मेरी आखिरी इच्छा तो छोड़ो, अपना नाम तक भूल जाए। या ऐसा भी हो सकता है कि पेड़ में ही कीड़े लग जायें और मुझसे पहले उसका ही राम नाम सत्य हो जाए।
जहाँ तक मेरा अनुमान है, अधिक संभावना उसकी दूसरी शादी हो जाने की है। और मैं कल्पना कर सकती हूँ, कि उसकी दूसरी बीवी, मेरा ही पर्स कंधे पर लटकाए बड़ी बेदर्दी से, मेरे ही दफनाई हुई लाश के अवशेष उखाड़ फेंकने का आदेश दे रही हो, क्योंकि वह भला क्यों चाहेगी की उसके पति की पूर्व पत्नी का भूत हर वक़्त बगीचे में मंडराता रहे।
एक सुबह, मैंने कोशिश करके अपने पति के सामने अपनी आशंका जाहिर कर ही दी, “सुनो, अपनी प्रिय जगह को मेरा, मर कर भी छोड़ने का इरादा नहीं है।” तो जवाब आया, “तुम्हें कुछ नहीं होगा, रोज इसे पिया करो।” और यह कहते हुए अपने प्रिय, सड़े-से पालक के ज्यूस का गिलास मेरी ओर ऐसे बढ़ा दिया, जैसे कि वह बाबा रामदेव का अमरत्व प्राप्ति का कोई अचूक नुस्खा हो।
फिर मैंने अपनी मां को लपेटे में लेने की कोशिश की। वह तो जैसे साक्षात् निरूपा रॉय का फिल्मी अवतार बन गईं, अपने दोनों हाथों से अपने कान बंद कर चिल्लायी, “ऐसी अपशकुनी बातें करना बंद करो।” वास्तविकता में, उनसे इस बारे में बात करना, एक गलत निर्णय साबित हुआ क्योंकि उनके लिए मृत्यु को स्वीकारना सदैव एक कठिन मसला रहा है।
यह और भी स्पष्ट हो गया, जब उन्होंने हाल ही में, मेरे स्वर्गीय पिता के सन्दर्भ में मुझसे पूछा, “डैडी की ऑटर्स क्लब की सदस्यता खत्म होने वाली है, उसे फिर से शुरू करवा लें क्या?” तब मुझे कोमलता से, स्पष्ट शब्दों में उनसे यह कहना पड़ा कि “अरे नहीं मां, बशर्ते कहीं आपका यह सोचना हो, कि कभी डैडी स्क्वॉश का कोई गेम खेलने या पूल-साइड बैठकर बीयर की चुस्कियां लेने के लिए स्वर्ग से प्रकट हो जाएँ।”
मृत्यु पर चर्चा हमेशा से ही एक वर्जित विषय रहा है, जब कभी भी मैं यह बात छेड़ती हूँ, मुझे ज्यादातर लोगो की डरावनी प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ता हैं। ऐसा नहीं है, कि मैं किसी कॉकटेल पार्टी में जाते ही माइक हाथ में लेकर, लोगों को यह कह कर डराने लग जाती हूं कि, “मृत्यु की छाया तुम्हारे ऊपर मँडरा रही है।” पर मैं सही समय का इंतज़ार करती हूँ। जैसे थोड़े समय पहले, मैं एक पार्टी में कुछ ऐसी औरतों के बीच फंस गयी थी, जो अपने बनावटी अंदाज़ में अपने मिलान से लाये बेहतरीन कुर्सियों और डस्टबिन का गुणगान करते नहीं थक रही थी। मौका देखकर मैंने भी कह दिया, “वाह, फर लाइनिंग वाला डस्टबिन, क्या बात है! अच्छा, यह तो बताओ कि कुछ सोचा है कि मरने के बाद तुम्हारी लाश के साथ क्या किया जाना चाहिए?” उस वक़्त, मैं बयान नहीं कर सकती कि उसके बोटॉक्स हुए माथे पर, कठिनाई से तानी हुई भोयें देख मुझे कितना मजा आया।
अब तक इस महत्वपूर्ण सवाल का, कुछ हद तक उचित जवाब, मुझे सिर्फ मेरे एक सहकर्मी से मिला जिसने कहा, “मैं अपने सभी अंग दान करने वाली हूँ। मेरे लाश का हर भाग किसी-न-किसी काम आना चाहिए। इस तरह मैं अपना कुछ हिस्सा हमेशा के लिए पीछे छोड़ जाऊंगी।”
उसके इस व्यावहारिक दृष्टिकोण से प्रभावित होकर, मैंने भी उसके इस प्रयास में थोड़ी मदद करनी चाही। मैंने पूछा, “क्या तुम्हें पता है, कि तुम्हारी बांह की चमड़ी का वह हिस्सा, जहां खूबसूरत टैटू बना है, उससे तुम्हारी मां के लिए एक अच्छा सा बटुआ बनवाया जा सकता है? सोचो, कि जब भी तुम्हारी मां, दूध वाले या धोबी को पैसे देने के लिए इसे निकालेंगी, तो उन्हें यह सोचकर कितना संतोष होगा कि तुम्हारा एक हिस्सा उनके पास भी है। जहां एक ओर लोग मगरमच्छ या शुतुरमुर्ग की चमड़ी से बने बैग के लिए अपनी कुल संपत्ति दांव पर लगा देते हैं, वहां तुम्हारा यह काम एक तरह से बिना किसी मोल के भी अनमोल होगा।”
ऐसा नहीं लगता कि उसे मेरा यह सुझाव पसंद आया, क्योंकि उसने एक कड़ी नजर से मुझे घूरा, और मैंने तय किया कि आगे से मैं कभी इतनी मददगार बनने की कोशिश नहीं करूंगी। अपनी लाश के लिए कब्र खोदने की चिंता वह खुद करे, मुझे क्या!
21वीं सदी में भले ही इन्हें अनदेखा किया गया हो, लेकिन मरने के बाद की तैयारियां प्राचीन सभ्यताओं का एक अभिन्न अंग रही हैं। मिस्र में शवों को गहनों और मूल्यवान वस्तुओं के साथ दफनाने से पूर्व, करीब 70 दिन तक, लेप लगाकर, सुखाया, भरा और लपेटकर रखा जाता था। हालांकि, अब वह दिन लद गए, जब कोई तुम्हारी लाश को तैयार करने में दो महीने का समय लगाए, पर फिर भी अगर कुछ सादी इच्छाएं हो, जैसे मरने के बाद अपने शव पर ‘हुडा’ कंपनी का मेकअप करवाना हो या कुछ और, तो एवेरस्ट कंपनी (फ्यूनरल प्लानर्स) की सेवाएं ले सकते हैं। उनकी सर्विस ने मुझे पूरी तरह से लुभा लिया था, जब तक कि मैंने उनका सेल्स-पिच वाला वीडियो नहीं देखा था।
वीडियो में एक चश्मिश, बेतरतीब-सा लड़का कहता है, “हेलो! मेरा नाम विल है, और मैं मर चुका हूँ।” फिर वह आपको अपने परिवार से परिचित करवाता है, जो उसके मर जाने से कुछ अधिक परेशान नहीं है क्योंकि उसने फ्यूनरल सर्विस के साथ मरणोपरांत की एक विस्तृत योजना पहले ही तैयार कर रखी थी। वीडियो के अंत में विल की मां प्रसन्नता-पूर्वक जाम उठाते हुए, कहती है, “धन्यवाद विल!” और उनका बेटा प्रफुल्लता से उत्तर देता है, “कोई बात नहीं।” यह देख के मेरा मन किया, कि अगर यह विल पहले से ही मरा हुआ ना होता, तो शायद आज मैंने ही उसकी खोपड़ी में गोली मार दी होती।
मृत्यु के विचार से ही लोग, ऐसे असहज महसूस करने लगते हैं, जैसे कि यह कोई दूषित विचार हो। “काश वक़्त यहीं रुक जाए” या “इस पल में ही जियो” जैसी व्यर्थ की बातों में ही वे खुद को भरमाए रखना चाहते हैं। यह भाव उतना ही मूर्खतापूर्ण लगता है, जितना कि एक धावक को उसकी फिनिशिंग लाइन से अवगत न कराना। अगर उसे यह कहा जाए कि उसे अनंत काल तक दौड़ते रहना है, तो क्या वह अपना हौसला बरकरार रख पाएगा?
काफ़्का की एक प्रसिद्ध पंक्ति है, “जीवन का अर्थ ही यह है कि वह रुक जाता है।” ऐसे लोग, जो एक बार यमदूत के चँगुल से बच कर लौट आए हों, उनसे मिलकर यह दृष्टिकोण और भी स्पष्ट हो जाता है। ऐसे लोगों में एक बदलाव दिखाई देता है। अब वे हर उस छोटी से छोटी वस्तु के प्रति कृतज्ञता का भाव रखते हैं, जिसे किसी समय वे ‘सहज-प्राप्य’ समझा करते थे। 2009 में मनोचिकित्सक ‘एडम एम ग्रांट’ और ‘किंबरली ए वेड बेन्जोनि’ द्वारा की गई एक स्टडी में भी यह पाया गया कि जब लोगों को उनकी शारीरिक नश्वरता के बारे में याद दिलाया जाता है, तो वे पहले से ज्यादा उदार, उत्पादक और उद्देश्यपूर्ण हो जाते हैं।
इसके बावजूद भी, अगर आप स्वाभाविक रूप से अपने अंत समय के बारे में ना सोच पा रहे हों, तो मेरा सुझाव है कि आप वी क्रॉक (We Croak) नाम का एक ऐप डाउनलोड कर लें, जो कि आपको दिन में पाँच बार यह रिमाइंडर देता रहेगा कि, “याद रखें, आप मरने वाले हैं।”
मेरे मामले में, ऐप की अपेक्षा, मैं अपने चंपा के पेड़ को ही अपनी मृत्यु की याद दिलाने वाला संकेतक बनाना चाहूंगी। जब-जब मैं बगीचे में पांव रखूंगी, यह मुझे एक बेहतर जीवन जीने की, कम चिंता करने की और जीवन की भाग-दौड़ में भी सतत शांत-भाव बनाए रखने की याद दिलाएगा क्योंकि उस हरे-भरे, छायादार वृक्ष के नीचे मुझे मेरी फिनिशिंग लाइन दिखाई दे रही होगी। यह एक ऐसी जगह होगी, जहां मेरी मृत्यु का शोक मनाने वालों के चले जाने के बाद भी, झरते हुए फूल सदैव उसका श्रृंगार करते रहेंगे।