
"अपने बच्चों को मुंबई में छोड़ कर, पढ़ने के लिए विदेश जाने का मेरा फैसला हर किसी की नज़र में गलत था"
डॉ जेनी बेनॉय अपने अकादमिक सपनों को पूरा करने के लिए सात समुन्दर पार गईं, लेकिन दूर रहते हुए भी उन्होंने एक मां का पूरा दायित्व निभाया
“कुछ साल पहले, मैंने अपना टीचिंग जॉब, टीआईएसएस का पीएचडी प्रोग्राम और अपनी फैमिली तक को मुंबई में छोड़ दिया, सिर्फ इसलिए ताकि मैं आयरलैंड जाकर अपनी डॉक्टरेट की पढ़ाई पूरी कर सकूं। इसका मतलब था लॉन्ग-डिस्टेंस पेरेंटिंग का जिम्मा उठाना। लोगों ने सोचा कि मेरा दिमाग खराब हो गया है। मैंने अपने जीवन में कुछ फैसले खुद लिए, तो कुछ मुझ पर जबरदस्ती थोपे गए। लेकिन आज, मुझे कोई पछतावा नहीं है।
मेरी मां ने अकेले ही मुझे पाला; ढाई साल की उम्र में मैंने अपने पिता को खो दिया। बचपन से मैंने पढ़ाई के लिए विदेश जाने का सपना देखा था, लेकिन मेरी मां ने कहा कि उनके पास केवल मेरी शादी करने जितना ही पैसा था। 23 साल की उम्र तक, मेरी शादी हो चुकी थी और मेरा पहला बच्चा भी हो गया था। जब मेरी बेटी को गंभीर निमोनिया और ब्रोंकाइटिस का सामना करने पड़ा, मैंने उसकी देखभाल के लिए सब कुछ छोड़ दिया।
कुछ साल बाद, मैंने एक कॉलेज में प्रोफेसर की नौकरी ले ली क्योंकि सबने यही सलाह दी कि बच्चों की परवरिश करते हुए टीचिंग सबसे अच्छा ऑप्शन है। पढ़ाने और घर की देखभाल करने के साथ-साथ, मैं खुद भी ग्रो करते रहना चाहता थी, इसलिए मैंने NET क्लियर किया, अपनी रिसर्च (क्रॉस-कल्चर मैनेजमेंट) फील्ड फाइनल की और एक कोर्स जॉइन कर लिया।
मेरा एक डेली रूटीन बन गया था – घर से कॉलेज जाना, वापस घर आना, अपने बच्चों की देखभाल करना, और बच्चों के बिस्तर में चले जाने के बाद अपनी पढ़ाई के लिए वक़्त निकालना। जिन दिनों में वर्कलोड बहुत ज्यादा रहता था, मैं सुबह 3.30 बजे तक काम करती, 5 बजे तक एक छोटी सी झपकी लेती, और फिर कॉलेज जाने के लिए उठ जाती थी। मेरे सास-ससुर की नज़रों में उनकी बहू के लिए एक निर्धारित भूमिका थी, और मैं जो कर रही थी, वह उनकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतर रहा था। लेकिन मेरी मां ने आगे बढ़कर मेरी घर संभालने में बहुत मदद की।
जब मुझे आयरलैंड में चार साल की पीएचडी करने के लिए फुल स्कॉलरशिप से सम्मानित किया गया, तो मैं बेहद खुश थी क्योंकि मैंने इसे बहुत मेहनत से कमाया था।
अपने बच्चों (10 और 8 वर्षीय) के सामने यह खबर रखना आसान नहीं था। मैंने उन्हें इस के लिए तैयार करना शुरू कर दिया। जब भी मैं ऑउटस्टेशन कांफ्रेंस के लिए जाती, उनके साथ वीडियो कॉल के जरिए संपर्क में रहती, इसलिए उन्हें इस कम्युनिकेशन की आदत होने लगी। मेरे पति नहीं चाहते थे कि मैं विदेश जाऊं, वे कहते, ‘तुम क्या साबित करना चाहती हो? मैं अपने करियर में सफल हूं और सब कुछ अच्छा चल रहा है। तुम्हें इससे ज़्यादा और क्यों चाहिए?’ उनके माता-पिता को लगा कि मेरा दिमाग खराब हो गया है। लेकिन मैंने अपना मन बना लिया था। ऐसा मौका लाइफ में एक ही बार मिलता है और वह भी हर किसी को नहीं मिलता।
मेरे चले जाने के बाद, उन्होंने घर पर ज़्यादा समय के लिए उपस्थित रहना शुरू कर दिया ताकि बच्चों को हम दोनों की ही कमी महसूस ना होने लग जाए। पहला साल काफी मुश्किल था, हर कोई एडजस्ट कर रहा था।
मैं और मेरे बच्चे एक-दूसरे से मिलने के लिए तरस रहे थे। मैंने उनसे वादा किया कि हर साल मैं, उनमें से एक के जन्मदिन के आसपास, एक महीने के लिए इंडिया की ट्रिप प्लान करूंगी। हम उन छुट्टियों के लिए तत्पर रहते थे। 2017 में, जब मेरे पति एक बुरे दौर से गुजर रहे थे, तो परिवार को प्राथमिकता देने की जरूरत थी। इसलिए मैं तीन महीने उनके साथ इंडिया में ही रही।
जब आप इस तरह से कुछ बिलकुल अलग कर रहे हों, तो ऐसे परिवर्तनों के लिए तैयार रहना बहुत महत्वपूर्ण है। आप स्वार्थी होकर केवल अपने सपने के पीछे नहीं भाग सकते। बहुत से उतार-चढ़ाव आएंगे, जब आपको अपनी गलतियों के लिए माफी भी मांगनी पड़ेगी; कोई भी एकदम परफेक्ट नहीं होता। एक बार मुझे अपनी बेटी के एक स्कूल फॉर्म पर साइन करना था, और मैंने डेडलाइन मिस कर दी। मुझे बहुत बुरा लगा, और मुझे याद है कि मैं उसके सामने रो पड़ी थी। अपनी गलती को मानना और उसके लिए जवाबदेह होने से आप छोटे नहीं हो जाते हैं।
लॉन्ग-डिस्टेंस पेरेंटिंग का मतलब यह नहीं है कि आप एक एब्सेंट पैरेंट हैं
लॉन्ग-डिस्टेंस पेरेंटिंग असंभव नहीं है। मेरे बच्चों ने कभी भी मुझे सब कुछ छोड़कर वापस लौटने के लिए नहीं कहा, यदि ऐसा होता तो यह अनुभव काफी दुखदायी हो जाता। आपको किसी न किसी तरह से उनकी लाइफ में उपस्थित रहने की आवश्यकता है। इतना दूर होने के बावजूद, अपनी बेटी की प्रतियोगिताओं से पहले, मैं वर्चुअली उसके साथ बैठकर उसकी तैयारी में मदद करती हूं। मैं उनकी क्लास टीचर्स और अपनी बेटी के डांस इंस्ट्रक्टर के साथ लगातार कांटेक्ट में रहती हूं… बच्चों को पूरा आश्वासन है कि मैं उनके दैनिक जीवन में सक्रिय रूप से शामिल हूं।
मेरे पति और बच्चों के बीच की बॉन्डिंग बहुत अच्छी है, वह उनके लिए एक दोस्त जैसे हैं। वह भी खुश हैं क्योंकि अब उन्हें अच्छे से पता रहता है कि बच्चे अपनी लाइफ में कब क्या कर रहे हैं, न कि केवल पहले की तरह हाइलाइट्स के रूप में। बल्कि, पिछली बार जब मैं बच्चों के साथ समय बिता रही थी और उनका होमवर्क चेक करते समय, उन्हें पढ़ाई को उचित समय देने के लिए समझा रही थी, उन्होंने मजाक में कहा, “मां, बहुत अच्छा है कि आप दूर रहती हैं। शुक्र है, पापा इतने स्ट्रिक्ट नहीं हैं।”
कोविड-19 के कारण पिछला साल कुछ ज़्यादा ही कठिन रहा है। अकेलेपन का शिकार हो जाना बेहद आसान है, लेकिन स्थिति में सुधार होते ही हम फिर से मिलने की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
मेरे 20 से 30 साल के दशक के दौरान मैंने जाना कि हमारे समाज में नौकरी या महत्वाकांक्षाओं सम्बंधित पुरुषों और महिलाओं की चाह को एक ही नज़र से नहीं देखा जाता। महिलाओं की प्रोफेशनल उत्कृष्टता कोई मायने नहीं रखती है। जब तक आपके पास एक नौकरी है, आपको उससे बेहतर ढूंढने की आवश्यकता नहीं है। आपकी प्राथमिक भूमिका घर की देखभाल करना है, और अगर किसी की बड़ी आकांक्षाएं हैं, तो इसे नीची नज़र से देखा जाता है।
कोई भी आपको यह नहीं बताता है लेकिन यह बैलेंसिंग एक्ट हमेशा 50-50 हो, ऐसा बिलकुल ज़रूरी नहीं है। आपको यह समझना होगा कि कभी यह 60-40, तो कभी यह 70-30 भी हो सकता है। इस के कारण ज़रुरत से ज़्यादा तनाव नहीं लेना चाहिए।
पिछले कुछ वर्षों ने मेरे पति के साथ मेरी रिलेशनशिप को बहुत प्रभावित किया है। हमने अच्छा और बुरा समय एक साथ गुजारा है। आज, यदि बात पेरेंटिंग की हो, तो हम बहुत अच्छे पार्टनर्स हैं, लेकिन कम्पैनियनशिप के बारे में मेरा विचार हमेशा के लिए बदल गया है।
यह आवश्यक नहीं है कि हमेशा आपका पति ही आपका सबसे मजबूत सहयोगी हो। आपकी मां, बहन, दोस्त, बच्चे, कोई भी आपका मजबूत सहारा बन सकता है। ऐसे लोगों को हमेशा अपने आस पास बनाए रखें जो हर परिस्थिति में आपका साथ दें और आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करें। अपने सपने को हासिल करने के लिए, आपको ऐसे लोगों की ज़रुरत नहीं है जो आपको पीछे की ओर खींचें बल्कि ऐसे लोग चाहिए जो चाहे कुछ भी हो जाए, हर कदम पर आपके साथ चलेंगें।
कभी-कभी मैं अपनी बेटी से कहती हूं कि हम जल्द ही एक साथ रहने वाले हैं, लेकिन अगर कोई दिन ऐसा आता है जब उसे अपने सपने को पूरा करने का एक बड़ा अवसर मिल रहा हो, जो उसके दिलो-दिमाग में पूरी तरह बसा हुआ है, तो उसे दोबारा नहीं सोचना चाहिए।
कठिनाइयों से उबरने की कला मैंने अपनी मां से सीखी है और उनके अनुशासन ने मेरे चरित्र को ढाला है। किसी की महत्वाकांक्षाएं और लक्ष्य हमारे समाज द्वारा तय नहीं किए जा सकते। आप जो चाहते हैं, उस में विश्वास करें और उसे हासिल करने के लिए पूरे फोकस के साथ आगे बढ़ें। भले ही लॉन्ग-डिस्टेंस पेरेंटिंग के माध्यम से ही सही, मुझे उम्मीद है कि मैंने अपने बच्चों को इन मूल्यों का महत्व अवश्य ही सिखाया होगा।”
(38 वर्षीय, डॉ जेनी बेनॉय एशिया पैसिफिक फाउंडेशन ऑफ कनाडा में, इंटरनेशनल ट्रेड में रिसर्चर हैं)
– अरुंधति चटर्जी को दिए गए विवरण के अनुसार