
महिलाओं को प्रोत्साहित करती 15 प्रतिष्ठित महिलाएं - जिन्होंने हमारे बेहतर कल के लिए, अपना जीवन समर्पित कर दिया
मार्गदर्शक, परिवर्तन-कर्ता और किसी भी मुद्दे पर बातचीत की शुरुआत करने को हमेशा तत्पर
देखा जाए तो, महिलाएं अपने अस्तित्व को सेलिब्रेट करने के लिए, एक विशेष दिन की मोहताज नहीं हैं। खुद को और अपनी सभी साथियों को सम्मानित करने, ऊंचाइयों तक पहुंचने और पनपने के लिए, साल के हर दिन, हमें यह अवसर मिलना चाहिए।
पर क्योंकि हम सकारात्मक लोग हैं, हमने सोचा, ट्वीक इंडिया के लांच के बाद हमारा पहला महिला दिवस बहुत अहम होना चाहिए। एक ऐसा मौका जब हम – हमारा मार्गदर्शन करने वाली, सामाजिक परिवर्तन लाने वाली, गुदगुदाती और किसी भी मुद्दे पर बातचीत की शुरुआत करने को तत्पर महिलाओं – को सैल्यूट कर सकें। यह वह अद्भुत हस्तियां हैं, जिन्होंने हमारे जीवन को बहुत आसान बना दिया है।
तो आइए, साइंस, एंटरटेनमेंट, सोशल सर्विस, स्पोर्ट्स, इंडस्ट्री, आदि क्षेत्रों के चुनिंदा सितारों की हमारी मेरिट लिस्ट में जगह बनाने वाली ऐसी महिलाओं से आपका परिचय करवाएं, जो हर कदम पर हमें प्रोत्साहित करती हैं। हम उन सभी के आभारी हैं, जिन्होंने ना जाने कितने अवरोध पार करके, एक ऐसी ट्राईब बनाई जो औरतों को सहारा देने के हमेशा तत्पर हैं।
मिलिए हमारी असल जिंदगी की वन्डर वीमेन से।
महिलाओं को प्रोत्साहित करती महिलाएं – 15 आइकॉन जो हमारे दिल के बहुत करीब हैं

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डॉ रानी बंग, गायनोकोलॉजिस्ट
जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी से, पब्लिक हेल्थ में मास्टर्स की डिग्री प्राप्त करने के बाद, डॉ रानी बंग के लिए पूरी दुनिया के दरवाज़े खुले थे, पर उन्होंने इंडिया के सबसे पिछड़े हुए क्षेत्रों में से एक को चुना। हाथ में स्टेथोस्कोप लिए, बेहतर हेल्थ के लिए काम करने वाले एक दूत की तरह बंग ने गढ़चिरौली, महाराष्ट्र में कदम रखा।
उस समय, इस क्षेत्र में वह इकलौती गायनोकोलॉजिस्ट थी, जिन्होंने औरतों से बातचीत की और उनके अनुभव एवं समस्याओं को समझा – यह बातचीत एक रिसर्च में बदल गई, जिसे उन्होंने यूनाइटेड नेशन्स सहित कई ग्लोबल प्लेटफॉर्म्स तक पहुंचाया। पहली बार, किसी कम्युनिटी पर आधारित ऐसी स्टडी, जो वहां पर फैली गायनोकोलॉजिकल समस्याओं को दर्शाती थी, 92 प्रतिशत औरतों को गायनोकोलॉजिकल समस्याएं थी पर उनमें से सिर्फ 8 प्रतिशत ने प्रोफेशनल मदद लेना ज़रूरी समझा।
बंग की इस कोशिश ने औरतों की सेहत से जुड़े नज़रिए को ही बदल डाला, जो कि सिर्फ प्रेगनेंसी और बच्चे को जन्म देने तक ही सीमित नहीं है। आईडीआर को दिए अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा, “औरतों को पहले मेंस्ट्रुएशन की उम्र से लेकर मरने तक, इतनी समस्याएं होती हैं जिन पर ध्यान देना बहुत ज़रूरी है।”
बंग और उनके पति, डॉ अभय बंग के लिए, हेल्थकेयर सिर्फ इलाज उपलब्ध कराना नहीं था। वह लोकल लोगों से बात करके, उनके रहनसहन और ज़रूरत-अनुसार सुविधाएं तैयार कर, उन्हें एक अलग अनुभव देना चाहते थे।
आमतौर पर हॉस्पिटल के स्टरलाइज़ कॉरिडोर और टिमटिमाती सफ़ेद लाइट्स वाले नाजुक माहौल को देख कर तो एक शहरी आदमी भी घबरा जाए, इसलिए बंग फैमिली ने झोपड़ियों के एक समूह के रूप में अपने हॉस्पिटल को डिज़ाइन किया, जो दिखने में एक छोटे गाँव जैसा ही था। यहां हेल्थकेयर सिर्फ एक ठंडा उदासीन क्लीनिकल अनुभव नहीं था, बल्कि एक बहुत ही सुखद अनुभव था।
1985 में, रानी और उनके पति ने सर्च (सोसायटी फॉर एज्युकेशन, एक्शन एंड रिसर्च इन कम्युनिटी हेल्थ) नामक एक संस्था शुरू की, जिसके द्वारा की गई बहुत सी मार्गदर्शक स्टडीज़ को पॉलिसीज़ में बदला गया, और जो कम्युनिटी के सहयोग से कई एजुकेशनल हेल्थ प्रोग्राम भी चलाती है। डब्ल्यूएचओ, यूएन, यूनिसेफ जैसी संस्थाओं से वाहवाही, अवार्ड्स और भारत सरकार द्वारा पद्मश्री प्राप्त करने एवं पूरी दुनिया में अपनी पहचान बनाने के बावजूद भी, इस बंग दंपति ने पिछड़ी हुई कम्युनिटीज़ के लिए अपना काम जारी रखा है।
लोकल स्तर पर काम कर रहे यह बंग दंपति, अपनी सर्विस, एजुकेशन, खुद की रिसर्च और नई पॉलिसियों के माध्यम से, पूरे विश्व को प्रभावित कर रहे हैं।

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दूती चंद, एथलीट
उनकी राह में इतने उतार-चढ़ाव रह चुके हैं, आप सोचते होंगे कि अब तक तो उन्हें हर्डल रेस में भागना शुरू कर देना चाहिए था।
एक के बाद एक जीत से उन्हें इतने मैडल प्राप्त हुए हैं कि अब शायद उन मैडलों का वजन, उनके वजन से कहीं ज़्यादा होगा। पी.टी. उषा (1986 में ) और सरस्वती सहा (1998 में) के बाद, उनकी जकार्ता में 2018 के एशियाई गेम्स में, 100 मीटर और उसके बाद 200 मीटर की उपलब्धि भारत के लिए पहली थी।
उनके इस उग्र स्वभाव के लिए उन्हें शाबाशियां भी मिली और आलोचनाएं भी। जब उन्होंने अपने सेम-सेक्स रिलेशनशिप में होने का खुलासा किया, तब वह भारत की खुलेआम पहली क्वियर एथलीट बनीं। वो जो कभी अपने होमटाउन की शान हुआ करती थी, अपने सेक्सुअल ओरिएंटेशन की वजह से उसे अपनी कम्युनिटी और अपनी ही फैमिली के विरोध का सामना करना पड़ा। 2014 के कॉमनवेल्थ गेम्स से, उन्हें सिर्फ इसलिए अयोग्य मान कर भारतीय टीम से हटा दिया गया, क्योंकि उनका टेस्टोस्टेरोन लेवल काफी ज़्यादा था। उन्होंने इस फैसले को कोर्ट में चैलेंज किया।
उनकी इस अपील को कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन फॉर स्पोर्ट (सीएएस), जिनेवा में सुना गया और उन्हें जीत हासिल हुई, पर चंद ने यह स्पष्ट किया कि उनकी हार भी उन्हें नहीं रोक सकती थी। ईएसपीएन को दिए अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा, “मैं खुद नहीं भाग पाई तो क्या हुआ, दूसरी लड़कियों को भगाऊंगी।” और उन्होंने ऐसा किया भी, उन्होंने कई युवा महिला खिलाड़ियों का जिम्मा लिया, उनके रहने-खाने का खर्चा उठाया, और उन्हें अपने कोच के साथ अच्छी ट्रेनिंग भी दिलवाई।
स्पोर्ट्स की दुनिया में लिंग-भेद को लेकर दोगलेपन का, चंद खुलमखुल्ला विरोध करती हैं। वह औरतों की अपनी शारीरिक स्वतंत्रता और हक़ के बारे में बातचीत करती हैं, अलग-अलग नियमों और जांचों पर सवाल उठाती हैं। उनका कहना है, “मेल एथलीट्स के लिए नियम नहीं हैं, पर फीमेल एथलीट्स के लिए इतने सारे टेस्ट हैं: आपका हार्मोन काउंट इतना ज़्यादा क्यों है? आपका बॉडी फैट कितना है? पर क्या हर ह्यूमन बॉडी एक जैसी हो सकती है?”
ये दुनिया पूरी ताकत के साथ उन्हें हराने के लिए उनके पीछे दौड़ रही है, लेकिन अभी भी चंद की स्प्रिंट आगे की ओर जारी है (वह भी रिकॉर्ड टाइम में)।

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थिनलास चोरोल, एंटरप्रेन्योर
लद्दाखी एंटरप्रेन्योर थिनलास चोरोल के लिए ‘चोटी का प्रदर्शन’ एक अलग ही मायने रखता है।
लद्दाख में जन्मी, इस भारत की पहली प्रोफेशनली ट्रेन्ड फीमेल गाइड, ने अपनी सफलता की ऊंचाइयों तक पहुंचने में बहुत सी मुश्किलों का सामना किया – जब वह एक गाइड के तौर पर काम ढूंढ रहीं थी, दो कंपनियों ने उन्हें सिर्फ इसलिए रिजेक्ट कर दिया क्योंकि वह एक औरत थी। औरतों के लिए, प्रोफेशनल स्पेस में यह कोई नई बात तो है नहीं।
मार्किट में इस कमी को देखते हुए – अकेली फीमेल ट्रैवेलर्स का फीमेल गाइड्स की मांग करना, और लोकल औरतों की प्रोफेशनल गाइड्स के तौर पर काम करने की इच्छा को ध्यान में रखते हुए, चोरोल ने 2009 में, एक लद्दाखी वूमेन ट्रेवल कंपनी शुरू की। लद्दाख की इस पहली ट्रेवल कंपनी, जिसकी मालिक और वहां काम करने वाली महिलाओं के लिए, शिखर तक पहुंचने का सफर बहुत ही लम्बा था – उन्हें औरतों को गाइड्स के तौर पर प्रशिक्षित करने और एक ठोस कस्टमर बेस बनाने में कई साल लगे।
गाइड सर्विस के साथ, यह कंपनी लोकल औरतों की मदद से होमस्टे चलाने का काम भी करती है, ताकि वह घर बैठे इसे अपनी आय का जरिया बना सकें। उत्तरी भारत की मेल-डोमिनेटेड ट्रैकिंग इंडस्ट्री में, इस सिर्फ-महिलाओं द्वारा संचालित बिज़नेस ने धूम मचा रखी है। शारीरिक और सामाजिक अड़चनें तो इन्हे छू भी नहीं पाती।
“कोई पहाड़ इतना ऊंचा नहीं, जिसे फतह ना किया जा सके।” खासकर, चोरोल और उनकी ऊंचाइयों को फतह करती पलटन के लिए।

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चेतना गाला सिन्हा, एंटरप्रेन्योर, एक्टिविस्ट
हमें अपने जीवन में छोटे से छोटा बदलाव लाने के लिए भी खुद से संघर्ष करना पड़ता है। पार्क में 20-मिनट वॉक करने की क्या ज़रुरत है, उससे हमारे फिटनेस रेजिमेन पर कहां कुछ ख़ास फर्क पड़ने वाला है? समुद्री-तट पर से कचरा उठाने की ज़ेहमत क्यों उठाएं, जब अन्य 20 लोग उसे उतनी ही जल्दी गन्दा करने में लगे हैं?
चेतना गाला सिन्हा, ने ‘सागर में एक बूंद बनने’ वाले दृष्टिकोण को अपनाया, और एक ऐसे शक्तिशाली आत्मनिर्भर सागर का निर्माण किया, जो आने वाले सालों में खुद ब खुद भरता रहेगा।
लीडर जयप्रकाश नारायण की युवाओं से रूरल इंडिया में जा कर काम करने की अपील पर, मुंबई में जन्मीं, इस सक्रिय एक्टिविस्ट ने महाराष्ट्र के गाँवों की तरफ रुख किया, जहां उन्होंने किसानों और औरतों के लिए हो रहे आंदोलनों में हिस्सा लिया। वहीं, उनकी मुलाकात विजय सिन्हा से हुई जिनसे उन्होंने शादी की और वह उनके साथ महाराष्ट्र के अंदरूनी क्षेत्र म्हसवाड़ में जाकर बस गईं।
ऐसी जगह में रहते हुए जहां पानी की कमी थी, घर के अंदर टॉयलेट नहीं थे, और किसी तरह की फाइनेंशियल सुविधाएं भी नहीं थी, उनकी मुलाक़ात म्हसवाड़ की एक वेल्डर, कांता बाई से हुई। तब उन्हें पता चला कि कांता बाई और उनकी जैसी ना जाने कितनी ऐसी महिलाएं हैं, जिन्हें बैंक्स में सेविंग्स अकाउंट खोलने की अनुमति नहीं मिल रही थी।
ऐसे में, सिन्हा ने इस समस्या का हल खोजा और 1996 में, उन्होंने भारत के पहले महिला सहकारी बैंक की स्थापना की। माण देशी महिला सहकारी बैंक का जन्म हुआ – और आज, यह महिलाओं द्वारा संचालित माइक्रो फाइनेंस बैंक, ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं की फाइनेंशियल ज़रूरतों का ध्यान रखता है। इनका माण देशी फाउंडेशन औरतों के लिए फाइनेंस सम्बंधित लिट्रेसी क्लासेज, बिज़नेस स्कूल, कम्युनिटी रेडियो और ग्रामीण महिला उद्यमियों के लिए एक चैम्बर ऑफ कॉमर्स का संचालन करता है।
आज, इस बैंक में 90,000 से ज़्यादा अकाउंट होल्डर और 15 मिलियन डॉलर के डिपॉज़िट्स हैं। क्यों, है ना यह अपने आप में एक शक्तिशाली सागर।

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सफीना हुसैन, सोशल वर्कर
आप शायद अपने फ़ोन पर इस आर्टिकल में, इन अद्भुत महिलाओं द्वारा किये गए अविश्वसनीय कामों के बारे में पढ़कर हैरान हो रहे होंगे। आपके चेहरे पर चमक, हल्की सी मुस्कराहट और मन में यह भाव होगा कि शायद ‘यह दुनिया इतनी बुरी भी नहीं है’।
लेकिन, क्या हमें कभी उन लाखों भारतीय बच्चियों और महिलाओं का ख्याल आता है, जो पढ़ नहीं सकती या जिनको हमारे जैसे अधिकार कभी मिले ही नहीं। इसके लिए हमें सफीना हुसैन द्वारा, 2007 में स्थापित एक नॉन-प्रॉफिट संस्था ‘एजुकेट गर्ल्स’ का शुक्रगुज़ार होना चाहिए, जो भारत के ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में लड़कियों के लिए शिक्षा उपलब्ध कराने में लगी हुई है, और हमारे बीच के इस फर्क को कम करने की कोशिश में जुटी है।
लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स से ग्रेजुएट, हुसैन ‘गर्ल एजुकेशन’ से जुड़ने से पहले साउथ अमेरिका, अफ्रीका और एशिया में रूरल और अर्बन कम्युनिटीज़ के लिए काम करती थी। उनके नेतृत्व में, आज ‘एजुकेट गर्ल्स’ राजस्थान और मध्य प्रदेश के 14,000 गांवो में कार्यरत है, और इन्होनें शिक्षा के क्षेत्र में वर्ल्ड का पहला डेवलपमेंट इम्पैक्ट बांड (डी.आई.बी) लांच किया। यह एक परफॉरमेंस पर आधारित इन्वेस्टमेंट इंस्ट्रूमेंट है जो कम रिसोर्सेस वाले देशों को डेवलपमेंट प्रोग्राम फाइनेंस करता है।
2018 में, इसके खत्म होने पर, एजुकेट गर्ल्स के डी.आई.बी ने 160 प्रतिशत लर्निंग टार्गेट और 116 प्रतिशत एनरोलमेंट टार्गेट प्राप्त किया। इसका मतलब?
महिलाएं कुछ भी कर सकती हैं। एक ऐसी दुनिया की कल्पना कीजिए, जहां हर औरत अपने लिए कुछ भी कर सकने में सक्षम हो। हुसैन की मदद से, यह सपना धीरे-धीरे एक हकीकत में बदल रहा है।

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मेघना गुलज़ार, फिल्म निर्माता
“पहले वो आप पर ध्यान नहीं देंगे, फिर वो आप पर हँसेंगे, फिर वो आप से लड़ेंगे, और तब आप जीतेंगे।” गाँधी जी की कही यह बात मेघना गुलज़ार के लिए बिलकुल सही बैठती है।
2002 में, बॉलीवुड, शायद, उनके लिए तैयार नहीं था। गुलज़ार द्वारा निर्देशित उनकी पहली फिल्म, फिलहाल (सरोगेसी के बारे में), लोगो के ज़ेहन पर बिना कोई छाप छोड़े गायब हो गई। उनके अगली दो कमर्शियल फिल्मों का लोगों ने जमकर मज़ाक बनाया – जस्ट मैरिड और दस कहानियां ।
लेकिन 2015 में, गुलज़ार ने खुद को एक कन्वर्सेशन स्टार्टर के रूप में फिर से प्रदर्शित किया, जिनके पथ प्रदर्शन की कमज़ोर समय में हमें बहुत ज़रुरत होती है।
फिल्म तलवार में, इस डायरेक्टर ने फेमस आरुषि तलवार डबल मर्डर केस का एक आंखों देखा विस्तृत चित्रण पेश किया।
उसके बाद आई उनकी अगली फिल्म राज़ी (2018 में), जिसमे 1971 के युद्ध के दौरान, एक नाजुक सी कश्मीरी लड़की (आलिआ भट्ट) अपने देश के लिए एक ख़ुफ़िया जासूस बन जाती है। एक ऐसे समय में, जब लोग छाती पीट-पीट कर अपना नेशनलिस्म साबित करने में लगे रहते हैं, सहमत ने हमें देशभक्ति के एक अलग ही रूप से अवगत कराया।
इस साल की शुरुआत में, गुलज़ार की फिल्म छपाक ने हमें एसिड अटैक सर्वाइवर लक्ष्मी अग्रवाल की आपबीती से रूबरु कराया।
इनकी फिल्मों में फीमेल किरदार बेचारी नहीं होतीं, ना ही मदद के लिए रोती रहती हैं; बल्कि वह तो हर परिस्थिति का खुद डटकर सामना करती हैं।
हालांकि, गुलज़ार फेमिनिज़्म के टैग से दूर रहने की पुरज़ोर कोशिश करती हैं, पर वह किसी भी तरह के परिवर्तन का साथ देने में पूरा विश्वास रखती हैं। उन्होंने मुंबई मिरर को दिए अपने एक इंटरव्यू में कहा, “अगर किसी फिल्म का प्रभाव सिर्फ तब तक रहे जब तक पॉपकॉर्न, तो यह उसमें लगाए बेहिसाब टाइम और पैसे की बर्बादी है। एक फिल्म की गूंज दूर-दूर तक सुनाई देनी चाहिए।”
इसमें कोई दोराय नहीं है। अभी तो उनकी फिल्मों का सिर्फ दूसरा राउंड चल रहा है, और बहुत से बाकी हैं।

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रेवती रॉय, एंटरप्रेन्योर
2006 में, रेवती रॉय एक ऐसी हाउस वाइफ थी, जो दो साल तक कोमा में रहे अपने पति की मृत्यु के बाद, उनके हॉस्पिटल बिल्स के ढेर से जूझ रही थी। अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने यह माना कि एक समय था, जब उनके पास खाने को भी पैसे नहीं थे। पर वह उन लोगों में से नहीं थी जो किसी की दया की मोहताज़ बनतीं।
उन्होंने अपने रैली-ड्राइविंग के जूनून को अपनी आमदनी का जरिया बनाया, और उसे एक सफल बिज़नेस मॉडल में बदल डाला।
रॉय ने एक टूरिस्ट टैक्सी किराए पर ली और जी.वी.के. – एक ग्रुप जो मुंबई एयरपोर्ट हैंडल भी करता है – से वहां के डोमेस्टिक टर्मिनल के स्लॉट के लिए रिक्वेस्ट की। बहुत जल्द ही, रॉय फ्लायर्स को एयरपोर्ट से लेने और छोड़ने का काम करने लगीं।
उन्होंने दूसरी महिला ड्राइवर्स को अपने साथ जोड़ने के लिए एक लोकल न्यूज़पेपर में एड भी डाला। अपने इस प्रयास में दो और साथी शामिल होते ही, रॉय ने ‘फ़ोर्से’ टैक्सी सर्विस लांच की, जो 2007 में एशिया की पहली वूमेन टैक्सी सर्विस बनी।
रॉय जो कभी खुद ड्राइविंग सीट में रहना पसंद करती थी, उन्होंने गरीब औरतों के लिए एक ट्रेनिंग अकैडमी की शुरुआत की, और उन्हें स्टेयरिंग संभालना सिखाया। आज इस कंपनी की मदद से, कई वूमेन ड्राइवर्स महीने के 15,000-20,000 रुपये कमाने में सक्षम हैं, और अब वह गरीबी रेखा के ऊपर हैं।
2016 में, रॉय ने एक कदम आगे बढ़ाते हुए ‘हे दीदी – एक नेशनल डिलीवरी सर्विस’ लांच की जो पिछड़ी हुई गरीब औरतों को रोजगार देती है। एक साल के अंदर ही, इस कंपनी ने कई क्लाइंट्स जैसे अमेज़न, पिज़्ज़ा हट, सबवे, के साथ टाईअप कर लिया।
सशक्त औरतों की अपनी इस टुकड़ी के साथ, रॉय ने उन सभी आलोचकों के मुँह बंद करा दिए, जो दावा करते हैं कि महिलाएं अच्छी ड्राइवर नहीं होतीं।

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निशा मधुलिका, यूट्यूब आइकॉन
निशा मधुलिका के डेमोक्रेटिक रिपब्लिक की पॉप्युलेशन सिंगापोर से कहीं ज़्यादा है। आप कह सकते हैं कि यह सब हमारे ख़्याली पुलाव हैं, पर मैं अपने लास्ट बिटकॉइन तक को इस शर्त में लगा सकती हूं कि इस यूट्यूब सेंसेशन के 10 लाख फॉलोवर्स की भक्ति जितनी अपने लीडर के प्रति हैं, उसकी तो हमारे पॉलिटिशियन कल्पना भी नहीं कर सकते।
2011 में, उन्होंने 52 साल की उम्र में अपना चैनल लांच किया, जिसकी मदद से अब मधुलिका दुनिया भर के होपलेस शेफ्स के लिए एक उम्मीद की किरण हैं।
इनके चैनल पर वेजीटेरियन डिशेज़ को, आसान हिंदी में इंग्लिश सबटाइटल्स के साथ, बहुत ही अच्छे से बनाना सिखाया जाता है। आपकी दादी-नानी की तरह, इनका सिखाने का तरीका भी बिलकुल घरेलू है। शायद यही वजह है, जब आप इनकी रेसिपी से सूजी मावा की गुंजिया बनाने की कोशिश करती हैं, आप कहीं न कहीं चाहती हैं की निशा आंटी को भी आप पर गर्व हो।
मधुलिका के अनुसार, उनकी सफलता का कारण, उनकी ट्रांसपेरेंसी और सबके टेस्ट को ध्यान में रखते हुए डिश डिज़ाइन करने की पॉलिसी है।
सोशल समोसा के साथ अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा, “ऐसा इसलिए है क्योंकि मैंने खुद से यह वादा किया है कि जितना हो सके चीज़ो को अपने दर्शकों के लिए आसान बनाऊंगी। मेरी पूरी कोशिश रहती है कि कुछ भी छिपा हुआ न हो, सब स्टेप्स अच्छे से समझाए जाएं, और हर डिश आसानी से उपलब्ध इंग्रेडिएंट्स से बनाई जाए। रेसिपी सिखाने के दौरान, मैं उन्हें आम समस्याएं और उनके सॉल्यूशन भी बताती हूं। यही वजह है कि एक गैरअनुभवी व्यक्ति भी इन रेसिपीज़ को अच्छे से बना सकता है और इसीलिए हमारे सब्सक्राइबर्स इन्हें बहुत पसंद करते हैं।
काश, हमारे पॉलिटिशियन भी इनसे कुछ सीख पाते।

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डॉ वर्षा जैन, गायनोकोलॉजिस्ट
एक समय था, जब लोगों का मानना था कि अगर औरतें स्पेस में गई, तो जिस तरह प्लेनेट मरक्युरी उल्टी दिशा में घूमने लगता है, उनके पीरियड्स के साथ भी ऐसा ही कुछ होगा। हालांकि इस धारणा को ख़ारिज कर दिया गया, लेकिन फिर भी ऐसे कई सवाल थे जिनका जवाब किसी के पास नहीं था। फिर आई डॉ वर्षा जैन, जिन्होंने वजाइना एक्टिविज़्म का मोर्चा संभाला।
आप बड़ी आसानी से अपनी कल्पना में इस ‘स्पेस गायनोकोलॉजिस्ट’ को हाथ में स्पेक्युलम लिए, अपना केप फड़फड़ाते खिड़की से छलांग मारते देख सकते हैं।
किंग्स कॉलेज, लंदन में सेंटर फॉर ह्यूमन एंड एप्लाइड फिजियोलॉजिकल साइंसेज (चैप्स) में एक विज़िटिंग रिसर्चर, डॉ वर्षा जैन को शुरू से ही फिज़िक्स से काफी लगाव था, और यही उनके आउटर स्पेस से इस गहरे प्रेम की वजह थी। मेडिसिन में उनकी दिलचस्पी समय के साथ विकसित हुई। उन्होंने इन दोनों का इस्तेमाल करते हुए, नासा के लिए, स्पेस में वूमेन रिप्रोडक्टिव हेल्थ जैसी विशिष्ट फील्ड में रिसर्च की।
उनके काम में, स्पेस का जो थोड़ा भाग है, वह स्पेस मेडिसिन के डिवीज़न में आता है। आज, यह लंदन में रहने वाली ओब्स्टेट्रिशन और गायनोकोलॉजिस्ट अपने काम को समझाते हुए कहती हैं, “एस्ट्रोनॉट्स के लिए डॉक्टर, या तो फ्लाइट सर्जन कहलाते हैं जो उनके संपूर्ण स्वास्थ्य का ध्यान रखते हैं, या फिर वो जो एस्ट्रोनॉट्स की हेल्थ पर अकादमिक रिसर्च करते हैं। जिसका मतलब है कि आप इन फ्लाइट सर्जन्स के लिए बेस्ट एविडेंस जुटाते हैं ताकि वह एस्ट्रोनॉट्स को अच्छी हेल्थकेयर दे सकें, या एस्ट्रोनॉट्स अपनी सेहत से जुड़े अपने फैंसले खुद ले सकें।
पृथ्वी के बाहर भी जीवन वैसा ही है, जैसा पृथ्वी पर – बस, औरतें और आदमी इसे अलग तरह से अनुभव करते हैं। जैन के अनुसार, हालांकि, स्पेस में थोड़ी सी असमानता है। उन करीब 600 लोगों में से, जो स्पेस में जा चुके हैं, औरतें की संख्या सिर्फ 60 है। तो, जैन और उनकी टीम को जिस समूह के लिए काम करना है, वह ज़्यादा बड़ा नहीं है।
अपनी तरह की यह इकलौती स्पेस गायनोकोलॉजिस्ट, फीमेल एस्ट्रोनॉट्स के संपूर्ण स्वास्थ्य की देखभाल करती है, इंफिनिटी तक या उससे भी परे।

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सुधा मूर्ति, एंटरप्रेन्योर, लेखिका, एक्टिविस्ट
हर सफल आदमी के पीछे, एक औरत होती है जिसका वह कर्ज़दार होता है।
इंफोसिस का अस्तित्व सुधा मूर्ति की ही देन है, आज की इस मल्टी-बिलियन डॉलर कंपनी के लिए, इन्होनें अपने पति नारायण को अपनी जमा-पूंजी 10,000 रूपए दिए, तब जाकर यह कंपनी शुरू हुई।
पर सिलिकॉन वैली से दूर, एक आम भारतीय को यह पद्मश्री विजेता, इनकी मज़बूत महिला किरदारों के बारे में लिखी बेहतरीन पुस्तकों की वजह से प्रिय हैं।
जहां मोरल साइंस की किताबें कम पड़ जाती हैं, वहां मूर्ति काम आती हैं – अपनी किताबों के जरिए वह बड़ी ही मासूमियत और समझदारी के साथ आपको ‘जीवन भर के लिए सीख’ दे जाती हैं, आपको पता भी नहीं चलता कि कि आपके अंदर दबा फेमिनिज़्म कब जाग जाता है।
उनकी बहुत सी कहानियां असल-जिंदगी की घटनाओं पर आधारित हैं, जैसे कर्नाटक में देवदासियों के लिए उनके बचाव-कार्य का वर्णन, यूएई में प्रताड़ित औरतों की मदद या अपनी दादी को पढ़ना सिखाना हो।
अपनी विनम्रता और आत्मविश्वास के साथ, सुधा ने इंटरनेट पर सिर्फ बड़ी-बड़ी बातें करने वालों पर भी जीत हासिल कर ली है।
उनके बारे में ऐसी कई कहानियां सुनने में आती हैं, जब उन्होंने बड़े पैसे वाले लोगों को भी अपनी हाज़िरजवाबी से उनकी वास्तविक जगह दिखाई, ऐसे कई वीडियो जिसमें वह शशि थरूर को कहती नज़र आ रही हैं कि उनकी किताबें पढ़ने के लिए उन्हें डिक्शनरी की ज़रुरत महसूस होती है, इंटरनेट पर वायरल हो चुके हैं।
इंजीनियरिंग कॉलेज में एक इकलौती फीमेल स्टूडेंट होने से उन्होंने यही सीखा है कि अगर औरतों को इस टेस्टोस्टेरोन में डूबी दुनिया में अपनी एक सफल जगह बनानी है तो उन्हें एकजुट होकर आगे बढ़ना होगा।
और फिर आपको किसी के सहारे की कोई ज़रुरत नहीं पड़ेगी।

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लक्ष्मी अग्रवाल, एक्टिविस्ट
लक्ष्मी अग्रवाल की ओर प्रभावशाली महिलाएं अपने आप ऐसे खींची चली आती हैं जैसे सूरजमुखी पर मधुमक्खियां। ह्यूमन राइट्स वकील अपर्णा भट्ट, जो लक्ष्मी की तरफ से, पिछले 11 साल से एसिड की मार्किट में खुली बिक्री के खिलाफ जंग लड़ रही हैं। डायरेक्टर मेघना गुलज़ार, जिन्होंने उनकी इतनी बाधाओं के बावजूद हासिल हुई जीत की कहानी को सिनेमा में कैद किया है। और दीपिका पादुकोन, जिन्होंने फिल्म छपाक में उनका किरदार निभाया है।
उस समय 15 साल की अग्रवाल, ना सिर्फ उन्हें 45 प्रतिशत तक जला देने वाले उस एसिड अटैक से बच कर बाहर आई, बल्कि नए आयाम पाने में कामयाब भी हुईं।
उन्होंने कोर्ट में पीआईएल फाइल की। लंदन फैशन वीक में एक क्लोथिंग लाइन के लिए मॉडलिंग और रैंप वाक किया।
उन्होंने छांव फाउंडेशन के अपने पुराने पार्टनर आलोक दीक्षित के साथ, ‘एसिड अटैक रोको’ कैंपेन लांच किया। दोनों ने साथ मिलकर, आगरा में भारत का पहला कैफ़े, शीरोज हैंगआउट, सेटअप किया, जिसे एसिड अटैक सर्वाइवर्स चलाती हैं।
और उनकी एक बेटी भी है, पीहू, (दोनों ने शादी ना करने का फैसला लिया) जो अब अपनी प्रसिद्ध मां के साथ कभी-कभी टिक-टॉक वीडिओज़ पर दिखाई देती हैं।
वोग को दिए अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा, “मुझ पर अटैक हुआ, क्योंकि उस आदमी ने सोचा कि अगर मैं उसकी नहीं हुई, तो किसी और की भी नहीं हो सकूंगी। उसे लगा कि इस तरह वह मुझे मेरे घर की चार दीवारों में कैद कर देगा, पर जिस लड़की को कल सिर्फ वह जानता था, आज उसे पूरी दुनिया जानती है।”
उनका इन एसिड अटैक सर्वाइवर्स को इस समाज में खुद के लिए फिर से एक जगह बनाने और अपने पैरों पर खड़ा करने का अथक प्रयास अभी भी जारी है।
“मैं चाहती हूँ, मेरे जैसी सभी लड़कियां जो इन परिस्थितियों से गुज़री हैं, यह जानें कि भले ही समाज कुछ भी कहे, उन्हें खूबसूरत महसूस करने का पूरा हक़ है। वह नार्मल हैं, और इस दुनिया में अकेली नहीं हैं।”

Photo credit: सुप्रिया जोशी / इंस्टाग्राम
सुप्रिया जोशी, कॉमेडियन
सुप्रिया जोशी अका ‘सुपारवूमन’ कॉमेडी को भी बहुत गंभीरता से लेती हैं। इतना कि उन्होंने इसके लिए अपनी फीचर राइटर जैसी आरामदायक जॉब को भी बलि चढ़ा दिया, ताकि वह जोक्स क्रैक करने को ही अपनी आय का जरिया बना सकें।
वह हमारे फालतू ट्विटर फीड्स में अपने हंसी के ठहाके जोड़ देती हैं, अपने ट्रोल्स का बेझिझक काम तमाम करती हैं, अपने गुदगुदाते ब्यूटी ट्यूटोरिअल्स के साथ हमें यह विश्वास दिलाती हैं कि मेकअप भी मज़ेदार हो सकता है और जब तक एक परफेक्ट सेल्फी न मिल जाए, वह हमें 12,213 शॉट्स लेने के लिए उकसाती रहती हैं।
नो-फ़िल्टर जोशी, सही मायने में, वह सुपरवूमन हैं जिनकी आज के जमाने में हमें सख्त ज़रुरत है। चाहे कुछ भी हो जाए, वह अपने विचारों को तोल-मोल के नहीं व्यक्त करतीं। अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा, “ऑनलाइन, मैं पूरी ईमानदारी के साथ अपनी बात कहती हूं, अगर मेरा दिन बुरा गया तो मुझे नहीं लगता कि इसमें छिपाने जैसा कुछ है। शायद, इसीलिए लोग मुझे पसंद करते हैं।”
इस टैलेंटेड कॉमेडियन को, अपनी कॉमेडी की आड़ में ऐसे कई मुद्दों पर खतरनाक स्टेटमेंट देने में बहुत मजा आता है: जैसे पोर्न एडिक्शन, पीसीओएस, बॉडी इमेज इश्यूस और प्लस साइज वूमेन के लिए डेटिंग।
अपने रिस्की और बेबाक़ ह्यूमर की वजह से, जोशी का करियर कहां से कहां पहुंच गया, छोटे-मोटे बार में कॉमेडी नाइट्स से शुरुआत करने के बाद पिछले साल वह कॉमिक्स्तान 2 की फाइनलिस्ट में से एक थी।
यह मानने के लिए बड़ी हिम्मत चाहिए कि आप ठीक महसूस नहीं कर रहे हैं। और इसीलिए हम जोशी को बहुत प्यार करते हैं, क्योंकि वह हमें हर बार, हर परिस्थिति में अपने वास्तविक रूप में रहने को प्रेरित करती हैं।

Photo credit: अरुंधति काटजू / इंस्टाग्राम
मेनका गुरुस्वामी और अरुंधति काटजू, पब्लिक इंटरेस्ट लिटीगेटर्स
6 सितम्बर, 2018 का दिन इंडियन हिस्ट्री में दर्ज हो गया है, एक ऐसा दिन जब प्यार की जीत हुई। इसी दिन सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए आईपीसी की धारा 377 को रद्द कर दिया था, जिसमें होमोसेक्सुएलिटी को अपराध माना जाता था।
यह फैसला उन अनगिनत बहादुर लोगों के कई सालों के संघर्ष का नतीजा था, और इस लड़ाई में सबसे आगे थीं, यह दो आइकोनिक महिलाएं – मेनका गुरुस्वामी और अरुंधति काटजू। इन दोनों पब्लिक इंटरेस्ट लिटीगेटर्स ने एक बहुत लंबी और मुश्किल जंग लड़ी, ताकि इंडियन LGBTQIA+ कम्युनिटी अपने ही देश में सशक्त, सुरक्षित और बराबर महसूस कर सकें।
गुरुस्वामी और काटजू की इस जीत से एक नए और विमुक्त भारत का जन्म हुआ, और इस के कुछ समय बाद ही इन दोनों ने पूरी दुनिया के सामने अपने निजी समलैंगिक रिश्ते को स्वीकारा। यह दोनों न सिर्फ भारत की पहली समलैंगिक वकील बनीं, बल्कि युवा भारतीयों के लिए आइकॉन भी बन गईं।
अपनी इस जीत से मिली ख़ुशी जाहिर करते हुए, गुरुस्वामी ने लिखा “आज के इस भारत में यह स्वतंत्रता कैसी महसूस होती है? यह आने वाले मानसून की तरह है, गीली मिट्टी की खुशबू; यह वकीलों के काले और सफेद चोगों के बीच हमारे युवाओं के रंगीन कुर्ते और नीली जींस की तरह है। आने वाले जीवन की उम्मीद में उछलते हुए, यह उनकी आँखों की टिमटिमाहट के समान है। आज का नवीन भारत इसे फिर अनुभव कर सकता है। आज से कई मानसून पहले 1947 में, भी ऐसा ही महसूस हुआ था जब इससे हमारा वास्ता हुआ था।”

Photo credit: तापसी पन्नू / इंस्टाग्राम
तापसी पन्नू, एक्टर
फिल्म पिंक (2016) में न्याय के लिए लड़ती एक 20 साल की लड़की से लेकर, फिल्म सांड की आंख (2019) में एक 60 साल की ओलिंपिक शूटर दादी का किरदार निभाते हुए, तापसी पन्नू की एक्टिंग की रेंज उस शूटिंग रेंज की तुलना में कहीं ज़्यादा फैली हुई है, जिस पर कभी वो प्रैक्टिस करती थी। उनकी फिल्मों का ग्राफ, मन में बहुत जिज्ञासा बढ़ाता है: अब अगली कौनसी होगी?
अलग-अलग किरदार निभाकर, उन्होंने बड़ी ही ख़ूबसूरती से, पर्दों के पीछे छिपी बहुत सी टैबू समस्याओं को घर-घर में चर्चा का एक विषय बना दिया। हाल ही में, उनकी फिल्म थप्पड़ (2020 ) में उन्होंने एक ऐसी सामान्य हाउसवाइफ का चित्रण किया जो घरेलू हिंसा और ज्यादतियों के एक अलग ही पहलू से हमें रूबरू कराती है, तो दूसरी फिल्म मिशन मंगल में उन्होंने एक इसरो साइंटिस्ट का किरदार निभाया। पन्नू सफलतापूर्वक खुद के लिए बॉलीवुड सुपरस्टार का एक नया साँचा तैयार करने में लगी हैं।
और न सिर्फ वह एक्टिंग के क्षेत्र में अपने झंडे गाड़ रही हैं, साथ ही वह एक बैडमिंटन टीम की मालिक हैं, एक वेडिंग प्लानिंग वेंचर की हेड हैं, और तो और एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर भी हैं।
अन्य महिलाओं के लिए, पन्नू एक प्रेरणा हैं।

Photo credit: इंदु हरिकुमार / इंस्टाग्राम
इंदु हरिकुमार, आर्टिस्ट
इंस्टाग्राम पर इंदु हरिकुमार के दिलचस्प आर्टवर्क की एक फीड, आपको सेल्फ-लव और इन्क्लूसिविटी का पाठ पढ़ा जाती हैं, जिनकी आज के समय में हमें सख्त ज़रुरत है। अपने लुभावने आर्टवर्क के द्वारा, हरिकुमार ऐसे दबे हुए संवेदनशील विषयों को चर्चा का मुद्दा बनाने में सफल रही हैं, जो आमतौर पर “लोग क्या कहेंगे” के सागर में डूब जाते हैं – डिजिटल ऐज में डेटिंग, फीमेल सेक्सुएलिटी, बॉडी इमेज, जैसे कई अनकहे पहलू जो महिलाओं के अनुभवों पर आधारित हैं।
यह इलस्ट्रेटर, सोशल मीडिया को एक शक्तिशाली हथियार की तरह इस्तेमाल करते हुए, महिलाओं को एक ऐसा मंच प्रदान कर रही हैं जहां वह बिना कोई दबाव महसूस किए अपने दिल की बात कह सकें। हरिकुमार कहती हैं, “अपना काम ऑनलाइन शेयर करके मैंने यह जाना कि यह एक बहुत सक्रिय प्लेटफार्म है, इसकी मदद से बहुत से लोग मुझसे जुड़े। जब कोई आपको अपने अनुभव बताता है, आप भी बेझिझक अपनी वह कहानी कह पाते हों जिसमें आप शर्म महसूस करते हो। आप खुद को अकेला नहीं महसूस करते।”
हरिकुमार की कलाकृतियां, असल ज़िन्दगी के तजुर्बों की उपज हैं, और कई तरह के संवेदनशील विषयों को छूती हैं, पर उनकी सभी रचनाओं में जो एक चीज़ कॉमन है, वह है उनका निडर और प्रबल दृष्टिकोण। कुछ भी परतों में छिपा हुआ नहीं है, हर चीज़ दर्शकों के सामने है जिसे वह समझते, अपनाते और फिर उसके साथ आगे बढ़ते हैं।
हरिकुमार, युवा भारत की बिना रुके आगे बढ़ते रहने और परिवर्तन लाने के लिए हमेशा तैयार रहने, की भावना का प्रतिनिधित्व करती हैं। पर ऐसा क्या है जो उन्हें, सोशल मीडिया पर एक पब्लिक फिगर होने की वजह से मिली नफरत के बावजूद, आगे बढ़ने के लिए उकसाता है? “मैं नफरत को नज़रअंदाज़ कर, उस समर्थन पर फोकस करती हूं जो मुझे मिलता है। शर्मिंदगी के कारण, बहुत सी महिलाएं खुद को अभिव्यक्त नहीं कर पातीं, मैं उन सभी को एक सेफ स्पेस देना चाहती हूं। और मैं निरंतर यही करते रहना चाहती हूं।”