
टॉक्सिक वर्क कल्चर: खराब बॉस नामक बीमारी का राष्ट्रीय प्रकोप
यह दाढ़ी बढ़ाने पर तनख़्वाह काटते हैं, ऑफ़िस बॉय से पीछा करवाते हैं और जेन ऐनिस्टन की तरह तो बिल्कुल नहीं दिखते
टॉक्सिक वर्क कल्चर (ऑफ़िस में ज़हरीला वातावरण) जैसे इन दिनों तेज़ी से पैर पसार रहा है। ये एचपीवी जैसी बीमारी से भी बड़े पैमाने पर फैला हुआ है। हालाँकि कुछ मामलों में, एचपीवी कम से कम अपने आप ठीक तो हो जाता है, लेकिन काम की जगह पर ज़हरभरा वातावरण होने पर या तो आप को काम छोड़ना पड़ता है या फिर सचमुच मोटी चमड़ी वाला बनना पड़ता है। यह महामारी आजकल बातचीत का आम हिस्सा बन गयी है, फिर चाहे टकीला शॉट्स लगाएं या अपने ख़राब बॉस पर शॉट लगाएं।
काम का ज़रूरत से ज़्यादा बोझ, अवास्तविक उम्मीदें और कामकाज का मुश्किल वातावरण यूं लगेगा, जैसे आप किसी ऐसे नर्क में पहुंच गए हैं, जिसे आपकी मानसिक शांति को भंग करने के लिए ही बनाया गया है, या फिर आपकी तबियत ख़राब हो जाएगी-लेकिन ये बातें अब आम हो गई हैं। माइन्डसाइट क्लीनिक की संस्थापक और सीईओ साइकोलॉजिस्ट जैनी सावला के अनुसार, अब ज्यादा संख्या में लोग अपने ऑफ़िस के टॉक्सिक वर्क कल्चर के बारे में शिकायत करते हैं।
अक्सर एच आर विभाग मूक दर्शक बनकर तानाशाह बॉसेस को ख़ुश रखता है। तुच्छ निजी टिप्पणियां, मंडलियां बनाने की संस्कृति अक्सर मतलबी और गॉसिप करने वाली लड़कियों को भी शर्मिंदा कर दें। इन सारी खतरनाक बातों की वजह से ज़्यादातर एम्पलॉइज़ अपना मानसिक संतुलन खो देते हैं और अंतत: वो नौकरी भी खो देते हैं, जो उन्हें बहुत पसंद थी।
यदि आप भी ऑफ़िस में ख़ुद पर की गई टिप्पणियों से असहज हो जाती हैं, ग़ैर वाजिब मांग के बीच फंस जाती हैं और बार-बार ख़ुद से यह सवाल करती हैं कि क्या नौकरी की वजह से आपको इतनी तकलीफ़ होनी चाहिए? तो जान लीजिए कि आप अकेली नहीं हैं। आगे पढ़िए और जानिए कि कौन-कौन सी वजहें थी, जिससे हतोत्साहित हो कर इन एम्प्लॉईज़ ने अंतत: नौकरी ही बदल ली।
हर्षिता अग्रवाल, एक फ़ूड ऐप की सोशल मीडिया मैनेजर
“एक ऐसा समय था, जब मैंने लगातार 21 दिनों तक काम किया था। और हमें चौबीसों घंटे काम के लिए उपलब्ध रहना पड़ता था। यदि हमने किसी टेक्सट मैसेज का जवाब नहीं दिया-भले ही वो हमें रात के बारह बजे ही क्यों न भेजा गया हो- हमें ऑफ़िस के वॉट्सऐप ग्रुप में अपमानित किया जाता था। एचआर भी हमारे बॉस से उतना ही डरता था, जितने हम, क्योंकि वो कंपनी की संस्थापक भी थीं। इससे मेरी सेहत पर बुरा असर पड़ा; मैं तनाव में ज़्यादा खाने लगी, मेरा वज़न बढ़ गया और अंतत: मुझे पता चला कि मुझे टाइप-2 डायबिटीज़ हो गई है। टॉक्सिक वर्क कल्चर से तंग आकर मैंने दूसरी नौकरी खोज ली, लेकिन वहां पर मेरे काम के आख़िरी दिन भी मुझे परेशान किया गया। मेरा रिलीविंग लेटर देने में देर की गई और धमकाया गया कि वो इस प्रक्रिया को रोक भी सकते हैं। वॉट्सऐप ग्रुप पर कहा गया कि, ‘हम कुछ ऐसा करेंगे कि तुम यहां से जा ही न पाओ। जाओ, जा कर अपना काम करो।’ वहां काम करना जीते जी नर्क में होने जैसा था।”
अंकित आग्रे, एक होम-शॉपिंग ब्रैंड के ऐंकर
“वह कंपनी पक्षपात के आधार पर चलती थी। एम्प्लॉइज़ से उम्मीद की जाती थी कि वे अपने बॉसेस का ख़्याल रखें और अपना काम निकलवाने के लिए उन्हें रिश्वत देते रहें- उन्हें ड्रिंक्स के लिए बाहर ले जाएं। स्थिति तब और भी बिगड़ गई, जब उन्होंने अजीब-से नियम बना दिए, जैसे- यदि आपने दाढ़ी रखी है तो आपकी तनख़्वाह कटेगी, दो मिनट की देरी से आए तो तनख़्वाह कटेगी। ये निराशाजनक था, क्योंकि काम के सिलसिले में अक्सर हम आधी-आधी रात तक ऑफ़िस में रुकते थे और फिर वे हमसे यह उम्मीद करते थे कि हम अगली सुबह छह बजे ऑफ़िस पहुंच जाएं। जब हमें नई नौकरी मिली तो बॉसेस ने धमकी दी कि वे हमारे बारे में ख़राब अफ़वाह फैला सकते हैं। मेरे बॉस ने मुझसे कहा कि वे मेरी नई कंपनी वालों को बताएंगे कि मैं मनोरोगी हूं। शुक्र है कि मेरी नयी कंपनी मुझे जानती थी।”
अर्चित जोशी, मुंबई की एक ऐड्वर्टाइज़िंग कंपनी में क्लाइंट सर्विसिंग मैनेजर
“उन्होंने तो जैसे ऐड्वर्टाइज़िंग की घिसी-पिटी बातों को बेहद गंभीरता से अपना लिया था। क्रिएटिव हेड को जैसे ईश्वर होने का मुग़ाल्ता था और वह हर किसी पर बहुत कड़वी निजी टिप्पणियां करता था। एचआर तो जैसे बस नाम के लिए ही था और कोई भी एम्प्लॉई चार महीने से ज़्यादा वहां टिकता ही नहीं था। एचआर हेड का ये निमय था, कि वो सोशल मीडिया पर हमारे ऊपर पूरी निगरानी रखें, और हम कहां हैं इसके बारे में सबके सामने खुलकर टिप्पणी करें।
एक बार, मेरी गर्लफ्रेंड अपने चर्चगेट के ऑफ़िस में बेहोश होकर गिर पड़ी। मैंने बॉस को इस बारे में बताया और ऑफ़िस से निकल गया। इस बीच उसकी एक कलीग ने उसे गोरेगांव (जहां हम रहते थे) छोड़ दिया। मैं उन दोनों से गोरेगांव स्टेशन पर मिला और घर निकल गया। अगले दिन, मेरे बॉस ने मुझ पर झूठ बोलने का आरोप लगाया। मुझे पता चला, कि उन्होंने हमारे ऑफ़िस बॉय को मेरे पीछे भेजा था, जिसने उन्हें बताया कि मैं चर्चगेट तो गया ही नहीं। मैं इससे ज़्यादा टॉक्सिक वर्क कल्चर बर्दाश्त नहीं कर सकता था। मुझे पूरा विश्वास है कि इस तरह किसी का पीछा करवाना ग़ैरक़ानूनी है!”

प्रखर झा, एक लोकप्रिय कॉमेडी शो के लेखक
“वहां रोज़ चिल्लमचिल्ली का माहौल होता था। बॉस/मुख्य कमीडियन को दूसरे पर भरोसा न कर पाने की दिक़्क़त थी और वहां एचआर तो था ही नहीं, जो हम किसी को इस बारे में कुछ बता पाते। दूसरे कमीडियन्स बातचीत करने में थोड़े बेहतर थे, लेकिन वो मुख्य कमीडियन के आगे कहां ठहर पाते? वो हम पर ऐसी टिप्पणियां करता था, ‘तुम लोग उस पैसे के लायक़ नहीं हो, जो मैं तुम्हें देता हूं। मैं लिखने को लेकर तुम लोगों पर भरोसा ही नहीं कर सकता। तुम लोग ख़ुद को लेखक कहते ही क्यों हो?’
मेरे काम के पहले ही दिन उसने मुझे पांच स्केचेज़ लिखने को कहा, और फिर उन सब को बकवास क़रार दे दिया। ऐसे टॉक्सिक वर्क कल्चर में रोज़ 14-15 घंटे बिताना, थका देनेवाला था, और मैं ख़ुद की योग्यता पर ही सवाल उठाता रहता था- इस हद तक कि एक समय तो मैंने लेखन के करियर को ही छोड़ने का मन बना लिया और दूसरे कलीग्स की तरह थेरैपी के लिए जाने लगा। फिर जब मैंने नया काम जॉइन किया, मैं कुछ ऐसे लेखकों से मिला, जिन्हें मेरी पिछली कंपनी में मेरे जैसा ही अनुभव हुआ था और मुझे एहसास हुआ कि इस तरह की परेशानी वहां औरों को भी हुई है। उतने ख़राब माहौल में हमारा आत्म-सम्मान तार-तार हो गया था।”
रिमी बैनर्जी, एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी में चार्टर्ड अकाउंटेंट
“मेरा बॉस अपनी टीम की लड़कियों का पक्ष लेता था, ख़ासतौर पर उनका जो उसकी अवास्तविक मांगों को आंख बंद कर के मान लें। चूंकि मैं ऐसा नहीं करती थी, उसने मुझे मानसिक तौर पर परेशान करना शुरू कर दिया। उसके साथ मेरी अप्रेज़ल मीटिंग थी, उसमे मुझे रात के साढ़े दस बजे तक इंतज़ार करवाया, जबकि सभी लोग सात बजे ही ऑफ़िस से जा चुके थे। पहले तो उसने मुझे इंतज़ार करवाया और फिर मुझसे कंपनी से जुड़े ऐसे आंकड़ों के बारे में सवाल पूछे, जिनका मेरे काम का कोई लेनादेना नहीं था। उसने मुझे एहसास कराने की कोशिश की कि मुझे कुछ नहीं आता और एक घंटे तक मुझसे इसी तरह की पूछताछ की। इस बातचीत के अंत तक मैं रुआंसी हो गई थी। चूंकि ये मेरी पहली नौकरी थी, मुझे इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने में डर लग रहा था। कुछ सालों बाद मैंने एचआर डिपार्टमेंट की अपनी एक कलीग से इस बारे में बात की, और उसने मुझे बताया कि यदि मैं उसकी शिकायत करती तो ऐसे बर्ताव के लिए उसे कंपनी से निकाल जा सकता था। पर तब तक वह ख़ुद ही कंपनी छोड़ चुका था।”
रिया पटेल, महिलाओं की लाइफ़स्टाइल मैगज़ीन की पत्रकार
“ये विडंबना ही है कि एक ऐसा बॉस जो बलात्कार पर जोक्स सुनाता हो, उसे मैनेजमेंट अपनी कंपनी के सेक्शुअल हैरासमेंट प्रिवेंशन कमिटी के लिए नामांकित करे। लेकिन एचआर ने इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं किया और हमें हमारे सेक्शुअल ओरिएंटेशन, कपड़ों के चुनाव और निजी जीवन को लेकर लगातार कमेंटरी सुनने मिली। कंपनी के संसाधनों को निजी यात्राओं के लिए इस्तेमाल किया गया और एम्प्लॉईज़ से कहा गया कि अप्रेज़ल के लिए पैसों की कमी है। बॉसेस अपने अधीन लोगों से बंधुआ मज़दूर की तरह व्यवहार करते थे- हमारी एक कलीग को उसी वक़्त काम पर लौटने के लिए मजबूर किया गया, जब वह अपनी दादाजी के अंतिम संस्कार के लिए गई हुई थी, उसी दिन काम पूरा न करने पर उसे इसके बुरे परिणाम भुगतने की धमकी दी गई। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं है, कि वहां के टॉक्सिक वर्क कल्चर में काम करने वाले आधे से ज़्यादा एम्प्लॉईज़ को थेरैपी लेने की ज़रूरत पड़ी।”
डेसिरी डी’सा, पुणे के आईबी स्कूल की शिक्षिका
“हम इस फ़ेंसी आईबी स्कूल की दूसरी ब्रांच में काम करते थे और हमारी ब्रांच के साथ दूसरे दर्जे का नागरिकों की तरह बर्ताव किया जाता था- किसी काम के लिए हमारी प्रशंसा नहीं की जाती थी। हमें समारोहों के अवसर पर लंबे समय तक स्कूल में रुकवाया जाता था और कोई ओवरटाइम नहीं दिया जाता था। स्कूल की मुख्य ब्रांच हमारे दिए सभी आइडिया खारिज कर देती थी, और कुछ समय बाद उन्हें अपना आइडिया कहते हुए लागू कर देती थी। हमसे पूरे दिन खड़ा रहने की उम्मीद की जाती थी। हम अटेंडेंस लेते समय भी नहीं बैठ सकते थे- उन्होंने हमारे क्लासरूम्स से कुर्सियां ही हटवा दीं! जो भी इस स्थिति के बारे में बात करने की पहल करता, उसे स्कूल से निकाल दिया जाता। एक साल में 15 में से 10 टीचर्स ने नौकरी छोड़ दी और बचे हुए पांच टीचर्स, जिन्हें ज़ाहिर तौर पर मानसिक रूप से बीमार कहा जाना चाहिए, उन्हें मुख्य ब्रांच में ले लिया गया और वह दूसरी ब्रांच बंद कर दी गई। ये मानसिक रूप से थका देनेवाला अनुभव था।

नेहा पटेल, एक फाइनेंस कंपनी में चार्टर्ड अकाउंटेंट
“हम चार फ्रेशर्स को कैम्पस प्लेसमेंट के ज़रिए इस नामचीन कंपनी में काम के लिए चुना गया था, जहां नौ कर्मचारियों वाली एक एचआर टीम भी थी। लेकिन हम अपने सीनियर्स तक पहुंच ही नहीं सकते थे। यदि हम उनसे कोई मदद मांगते, तो वो ऐसी बातें कहा करते थे,‘तुम अपनी परीक्षा में आख़िर पास कैसे हुए?’, ‘क्या तुमने अपनी परीक्षा पांचवी बार में पास की थी?’ सीनियर्स बहुत ही रूखे ढंग से पेश आते थे, लेकिन एचआर टीम के लोगों से उनकी दोस्ती थी। तो जब हममें से कुछ लोगों ने उनकी शिकायत की, तो हमारे सीनियर्स ने हमें धमकाया कि हमारा अप्रेज़ल नहीं होगा।
वहां मुख्य बॉसेस अधिकतर बिना छुट्टी लिए ग़ायब रहते थे, महीने में केवल दो या तीन दिन आते थे और आते ही हम सब पर चीखना-चिल्लाना शुरू कर देते थे। हम किसी से यह कह भी नहीं सकते थे, और हमारे लिए यह सब एक डरावना अनुभव था, ख़ासतौर पर इसलिए कि यह हमारी पहली नौकरी थी। हमने वहां कुछ भी नहीं सीखा और हमारे साथ बहुत ख़राब व्यवहार किया गया। हममें से अधिकतर लोगों ने पहले ही साल में वहां से नौकरी छोड़ दी।”
अर्जुन श्रीवास्तव, एक टेक्नोलॉजी थिंक टैंक कंपनी में मार्केटिंग ऐनैलिस्ट
“मेरी पुरानी बॉस कंपनी में कुछ यौन उत्पीड़न के आरोपों का सामना कर रही थीं, लेकिन बावजूद इसके उन्होंने एम्प्लॉईज़ को सार्वजनिक रूप से नीचा दिखाने का काम बंद नहीं किया था। वो अक्सर हमारे क्यूबिकल्स में अचानक आ जाती थीं और किसी छोटी-सी बात का बतंगड़ बना देती थीं। वो बिना सोचे-समझे हमसे ऐसे काम करने को कहती थीं, जो हमारे काम का हिस्सा ही नहीं थे।
उदाहरण के लिए, उन्होंने एक बार मुझसे डेलीगेट्स के लिए खाने का ऑर्डर देने को कहा, और इस बात की कोई जानकारी नहीं दी कि खाने में क्या मंगाना है और इसका बजट कितना है। जब मैंने उनसे इसके बारे में पूछा, तो वो बोलीं, ‘तुम इतना छोटा-सा काम भी नहीं संभाल सकते? तुम वो चपाती ही क्यों नहीं ऑर्डर कर देते, जो तुम रोज़ाना खाते हो?’ मुझे ग़ुस्सा आ गया, और मैंने उन्हें कहा कि वे अपनी सीमा का उल्लघंन कर रही हैं, और मैं वहां से चला आया। वहां काम करने के दौरान मैं इतने तनाव में था कि मैंने अपने परिजनों और दोस्तों से दूरी बना ली थी और ज़रूरत से ज़्यादा ड्रिंक और स्मोक करने लगता था। मैं पूरी तरह बदल गया था। हमने इन घटनाओं का ज़िक्र करते हुए एचआर को ईमेल भी लिखा था, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की गई। हममें से कुछ को चुप करा दिया गया और कुछ ने ख़ुद ही नौकरी छोड़ दी। कुछ समय बाद मैंने भी नौकरी छोड़ दी।”
आशीष कपूर, एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी में सॉफ़्टवेयर इंजीनियर
“वहां जूनियर्स के साथ सम्मानजनक व्यवहार नहीं किया जाता था। हम एक मिनट देरी से भी नहीं पहुंच सकते थे, लेकिन हमारे बॉस जब मर्ज़ी, तब आ सकते थे। यह वहां के कामकाज की संस्कृति का हिस्सा था। हमारे पद तो बदलते थे, लेकिन तनख़्वाह में मुश्क़िल से ही कोई बढ़ोतरी होती थी। वजह दी जाती थी कि कंपनी ब्रेक ईवन पर भी नहीं पहुंच रही थी, लेकिन हमें पता चला कि हमारे बॉस अपनी तनख़्वाह में मोटी बढ़ोतरी पा रहे थे। मुझे इस बात से बड़ा झटका लगा, जब मेरा प्रमोशन होने के एकाध साल बाद मुझसे कहा गया कि मैं जूनियर्स के साथ दोस्ती करूं और बॉस को इस बात की ख़बर दूं कि वे कंपनी के बारे में क्या बातें करते हैं। वे यह भी चाहते थे कि हममें से कुछ लोग कैफ़ेटेरिया में छुपकर उनके बीच की बातचीत सुनें। मुझे इस बात पर भरोसा ही नहीं हुआ, लेकिन यूं लगा जैसे वहां हमेशा से ऐसा किया जाता रहा है। हमें लगने लगा कि शायद हमारे बॉस इसी तरह हमारे ऊपर भी हर समय नज़र रख रहे हैं। इसके तुरंत बाद कई लोगों ने एकसाथ इस्तीफ़े दे दिए। हां, कुछ समय तक मैं बेरोज़गार रहा, लेकिन कम से कम मैं इस तरह की संदेहास्पद चालों का हिस्सा तो नहीं था!”