
यह भारत की सैर करने का सबसे सस्ता तरीक़ा है
11 बॉलीवुड फ़िल्में जो आपको सोफ़े पर बैठे-बैठे ही भारत के मुख्य शहरों की गलियों की सैर करा लाएंगी
फ़िल्में देखने वालों के बारे में, ये बात मैं समझ ही नहीं पाती हूं: वो ये क्यों कहते हैं कि मैं आधी फ़िल्म देखकर ही बाहर निकल आया। अब बताइए कोई ऐसा क्यों करेगा? क्योंकि आपको फ़िल्म की कहानी अच्छी नहीं लगी? बॉलीवुड फ़िल्में केवल कहानियों के लिए देखना ऐसा है, जैसे आप किसी रेस्तरां में केवल खाने के लिए जा रहे हैं। खाना तो आप घर पर भी ऑर्डर कर सकते थे, ना? क्या रेस्तरां का माहौल ही वहां खाने के अनुभव को अलग नहीं बनाता? आपको नहीं लगता की माहौल का किसी भी अनुभव को अच्छा या बुरा बनाने में बहुत बड़ा हाथ होता है?
यही वजह है कि जब किसी फ़िल्म की कहानी में मेरी दिलचस्पी ख़त्म होने लगती है, तो मैं उसमें कुछ और ही देखने लगती हूं। ऐसी बॉलीवुड फ़िल्में, जो आपके दिल और दिमाग में उतरने लगें, उन्हें देखते समय उनकी सेटिंग को आप देखते ज़रूर हैं, लेकिन उन ख़ूबसूरत नज़ारों का आनंद बाद में (धीरे-धीरे अपने मन में) उठाते हैं।
जैसा कि दिबाकर बनर्जी की फ़िल्म खोसला का घोसला में दिल्ली, सुजाय घोष की कहानी में कोलकाता, शूजीत सरकार की पीकू में दिल्ली और कोलकाता दोनों। दिल चाहता है में गोवा, सिडनी और मुंबई भी। विशाल भारद्वाज की ओंकारा तो मेरठ का बिलकुल यथार्थ चित्रण करती है। और यदि आपको उत्तर प्रदेश की यात्रा में दिलचस्पी है, तो आनंद एल राय की तनु वेड्स मनु से शुरुआत कीजिए; या इससे भी बेहतर होगा शाद अली की बंटी और बबली के फ़ुरसतगंज से शुरुआत करना। इसके अलावा अनुराग कश्यप की गैंग्स ऑफ़ वासेपुर या अभिषेक कपूर की केदारनाथ जैसी बॉलीवुड फ़िल्में भी वहां के छोटे-छोटे गांवों की सैर के लिए अपने आप में एक बेहतरीन गाइड हैं।
अब बात शुरू की है, तो क्यों न ऐसी फ़िल्मों की एक सूची बनाई जाए, जो भले ही बहुत बड़ी हिट न हुई हों, लेकिन आपको भारत के भीतरी भागों की ऐसी यात्रा करा दें, जो शायद वहां का देसी टूरिज़्म भी आपको न करा पाएगा? ये बॉलीवुड फ़िल्में आपको ऐसी जगहों पर ले जाएंगी, जहां आप कभी नहीं गए होंगे और संभवत: कभी जाएंगे भी नहीं। एक फ़िल्म किसी क़स्बे या शहर को घूमने का सबसे सस्ता ज़रिया हो सकती है।

Photo credit: 'मोहल्ला अस्सी' का स्क्रीनग्रैब / यू ट्यूब
मोहल्ला अस्सी में वाराणसी
पश्चिमी देशों के लोगों को भारत का वाराणसी या बनारस बहुत लुभाता है। नीरज घायवान की फ़िल्म मसान ने इस छोटे शहर को परत दर परत इसके गुण और दोषों के साथ इस तरह दिखाया कि नेशनल ज्योग्राफिक भी इस शहर को कभी इस तरह से नहीं दिखा पाता। और चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने मोहल्ला अस्सी (काशीनाथ सिहं के उपन्यास काशी का अस्सी पर आधारित) में इस शहर को इस तरह दिखाया कि आप वाराणसी के अस्सी घाट को पूरी तरह जान लें। यहां की संकरी गलियां, यहां के स्थानीय महिला-पुरुष, हिप्पी लोग और ढोंगी बाबाओं को उन्होंने इस तरह दिखाया है कि आपको इस शहर की यात्रा का अनुभव किसी टूरिस्ट की नज़र से नहीं बल्कि वहां रहने वाले की नज़र से हो। ।

Photo credit: 'दम मारो दम' का स्क्रीनग्रैब / यू ट्यूब
दम मारो दम में गोवा
आमतौर पर बॉलीवुड फ़िल्मों में, गोवा का प्यार और मौज-मस्ती से भरा जीवन और वहां के स्थानीय लोग दिखाए जाते हैं। होमी अदजानिआ की फिल्म फ़ाइंडिंग फ़ैनी, इस फ्रेंच कहावत ‘जॉय द वीव्र (जीवन का परम आनंद)’ का बहुत ही सुन्दर तरीक़े से चित्रण करती है। और फिर है – माफ़िया, ड्रग्स, रेव पार्टीज़ और कड़ी धूप में सुलगता हमारी फ़िल्मी कल्पना वाला गोवा। रोहन सिप्पी की दम मारो दम में तो जैसे आप इस खूबसूरत राज्य की शानदार ट्रिप पर हो आते हैं। यह उन दूसरी फिल्मों से बहुत अलग है जिनमें सिर्फ गोवा के समुद्री तटों पर बिकिनी पहने कुछ महिलाएं बीयर के साथ ‘आइटम’ नंबर करती नज़र आती हैं।

Photo credit: 'मिलन टॉकीज़' का स्क्रीनग्रैब / यू ट्यूब
मिलन टॉकीज़ में इलाहाबाद
निर्देशक तिग्मांशु धूलिया की फ़िल्म हासिल (2003) ने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के भीतर के कैम्पस पॉलिटिक्स को बेहतरीन ढंग से दिखाया था। हालांकि उनकी 2019 की फ़िल्म ‘मिलन टॉकीज़’, तुलनात्मक रूप से बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती, लेकिन यह फिल्म निर्देशक के होम टाउन की यादें ताज़ा करती है – जो आपको वहां की हर उस जगह की सैर करा लाती है, जहां आपको कोई स्थानीय व्यक्ति ही लेकर जा सकता है।

Photo credit: 'शेफ़' का स्क्रीनग्रैब / यू ट्यूब
फ़िल्म शेफ़ में कोच्ची
सैफ़ अली ख़ान अभिनीत यह फ़िल्म ‘शेफ़’, जॉन फेवरोऊ की कल्नरी ड्रामा पर आधारित हॉलीवुड फ़िल्म का हिंदी रीमेक था। जो ओरिजिनल फ़िल्म देख चुके हैं, वह तो इसकी कहानी जानते ही होंगे। फिर ऐसी फ़िल्म का रीमेक कोई क्यों देखे, बल्कि रीमेक बनाया ही क्यों जाए? मुझे लगता है, शायद इसलिए ताकि, निर्देशक राजा कृष्णा मेनन आपको अपने होम टाउन की सैर करा सकें। देखा जाए तो बहुत कम बॉलीवुड फ़िल्में, हमें दक्षिणी भारत से इतने विस्तार और ख़ूबसूरती के साथ रूबरू कराती हैं। इस फ़िल्म के जरिए ‘गॉड्स ओन सिटी’ कहे जाने वाले कोच्ची शहर का यह सुंदर सफ़र आप अपने सोफ़े पर बैठ-बैठे ही कर सकते हैं।

Photo credit: 'लिपस्टिक अंडर माई बुर्क़ा' का स्क्रीनग्रैब / यू ट्यूब
लिपस्टिक अंडर माई बुर्क़ा में भोपाल
बॉलीवुड के संदर्भ में, भोपाल की ट्रेजिडी यह रही, कि हालांकि यह शहर कई बॉलीवुड फ़िल्मों में नज़र आया, लेकिन इसे शायद ही वह पहचान मिली जिसका यह हक़दार था। प्रकाश झा की कई फ़िल्में इसी शहर में शूट की गयी थी। लेकिन इस ख़ूबसूरत झीलों वाले शहर को उनकी फ़िल्मों में भारत के किसी ‘एक आम शहर’ की तरह दिखाया गया। लेकिन अलंकृता श्रीवास्तव की फेमिनिस्ट फिल्म ‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्क़ा’ ने इसे बदल दिया – उन्होंने भारत के राज्य मध्य प्रदेश की इस आकर्षक राजधानी भोपाल के भीतरी हिस्सों, मकानों, मॉल्स, मस्ज़िदों और मोहल्लों को अपनी फ़िल्म में इस तरह दिखाया है कि फ़िल्म के किरदारों को महसूस करते हुए, बिलकुल ऐसा महसूस होगा जैसे आप खुद इस शहर में रह चुके हैं।

Photo credit: 'शुद्ध देसी रोमांस' का स्क्रीनग्रैब / यू ट्यूब
शुद्ध देसी रोमांस में जयपुर
लोकप्रिय पीरियड फ़िल्मों को छोड़कर, जिनमें ज्यादातर जयपुर की हवेलियों और महलों को दिखाया जाता था – ऐसी कोई भी फ़िल्म नहीं है, जो इस गुलाबी नगरी में बनी हो – और जिसने इस फ़िल्म ‘शुद्ध देसी रोमांस’ की तरह पूरी सच्चाई के साथ, बिल्कुल इस शहर के से लगते शुद्ध देसी घी में डूबे क़िरदारों के साथ पूरा न्याय किया हो, और जहां वास्तविक जयपुर नज़र आया हो। मनीष शर्मा की इस फ़िल्म का मुख्य क़िरदार सुशांत सिंह राजपूत एक टूरिस्ट गाइड हैं, जो अपनी अनुभवी आंखों के साथ आपको राजस्थान की इस राजधानी की सैर करने में मदद करता है।

Photo credit: 'पैडमैन' का स्क्रीनग्रैब / यू ट्यूब
पैडमैन में महेश्वर
शांत नर्मदा नदी के किनारे बने इस छोटे-से सुंदर क़स्बे को, जिसमें कुछ क़िले और मंदिर भी हैं, आप कैसे देख सकते हैं? वैसे तो, इंदौर से कुछ दूर पर बसे इस क़स्बे तक आप गाडी से ड्राइव करके भी जा सकते हैं। उससे भी बेहतर तरीक़ा है, यदि आपको इसके घरों के भीतर और रहस्यमय गलियों में झांकना हो, तो आर बाल्की की पैड मैन देख लीजिए। यह अनुभव, वहां यथार्थ में जाकर इस कस्बे को देखने से कुछ कम नहीं है।

Photo credit: 'इंडियाज़ मोस्ट वॉन्टेड' का स्क्रीनग्रैब / यू ट्यूब
इंडियाज़ मोस्ट वॉन्टेड में पटना
क्या आपने कभी एक विशाल अंडे के आकार वाला धान्यागार (ग्रैनरी), ‘गोल घर’ देखा है? यह राजकुमार गुप्ता की फ़िल्म इंडियाज़ मोस्ट वॉन्टेड के पोस्टर पर दिखाई देता है। वरना आपकी नज़र इस पर कैसे पड़ती? आख़िर हममें से कितने लोग एक टूरिस्ट की तरह पटना घूमने जाते हैं। अर्जुन कपूर अभिनीत एक थ्रिलर, जो हालांकि मुख्यतः नेपाल में शूट की गयी थी, ड्रोन शॉट्स के ज़रिए आसमान से ही आपको बिहार की राजधानी घुमा लाती है। यह विकास बहल की सुपर 30 से कहीं बेहतर है, जो कि पुराने समय में पाटलीपुत्र के नाम से जानेवाले इस शहर में ही केंद्रित है। यह इसलिए भी मायने रखती है, क्योंकि आपको पटना शायद ही कभी किसी फ़िल्म में देखने को मिलेगा (भोजपुरी फ़िल्मों में भी नहीं)।

Photo credit: 'बॉबी जासूस' का स्क्रीनग्रैब / यू ट्यूब
बॉबी जासूस में हैदराबाद
पुराने हैदराबाद में कई अनूठी चीज़ें हैं, यहां का लहजा और यहां के दृश्य। इसे डिटेक्टिव बिलकीस ‘बॉबी’ बानो बनी विद्या बालन के साथ देखने से अच्छा क्या हो सकता है, जो आपको यह पूरा शहर घुमाती हैं, इसकी गलियों में ले जाती हैं और कुशलता से आपके घर भी पहुंचा देती हैं, क्योंकि इसके लिए आपको कहीं बाहर तो जाना ही नहीं है। हबीब फ़ैज़ल की दावत-ए-इश्क़ में भी हैदराबाद को अच्छे ढंग से दिखाया गया है, हालांकि इसमें आपको उतना ही अनूठा लखनऊ भी नज़र आएगा।

Photo credit: 'यहां' का स्क्रीनग्रैब / यू ट्यूब
यहां में कश्मीर
साठ के दशक में, एक लोकेशन के रूप में कश्मीर तो जैसे बॉलीवुड फ़िल्मों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था, ख़ासतौर पर शम्मी कपूर अभिनीत फ़िल्मों में। अस्सी के दशक के आख़िर में, विद्रोह के बाद ‘धरती का स्वर्ग’ कहे जाने वाले कश्मीर में, फ़िल्मों की शूटिंग में भारी कमी आई। हालांकि, विधु विनोद चोपड़ा की मिशन कश्मीर और मणि रत्नम की रोजा इस दौर की फ़िल्मों की सूची में सबसे ऊपर हैं। और हां, अयान मुखर्जी की ये जवानी है दीवानी का ‘मनाली’ भी दरअसल, कश्मीर ही था।
आपको क्या लगता है कि फ़िल्म यहां , युद्ध के दौरान एक फौजी और एक स्थानीय लड़की की प्रेम कहानी, ने दर्शकों को क्या नया दिखाया? नए निर्देशक शूजीत सरकार से परिचय कराने के अलावा? कश्मीर – सिर्फ रात की चांदनी में, अपनी पूरी खूबसूरती और खुलेपन के साथ, जैसा आपने पहले कभी भी किसी भी फ़िल्म में नहीं देखा होगा। मज़ेदार तथ्य: फ़िल्म यहां को शूट किसने किया? स्वीडन के सिनेमेटोग्राफ़र जैकब इहरे ने। उनका सबसे ताज़ातरीन काम? एचबीओ की मिनी-सीरीज़ चेर्नोबल ।.

Photo credit: 'गली बॉय' का स्क्रीनग्रैब / यू ट्यूब
ज़ोया अख़्तर की गली बॉय में मुंबई
बॉलीवुड फ़िल्में ज़्यादातर मुंबई में बनती हैं। चाहे यह शहर फ़िल्मों में दिखता हो या नहीं, लेकिन इसका कॉस्मोपॉलिटन कल्चर हमेशा स्क्रीन पर नज़र आता है। क्या मुंबई के फ़िल्म निर्माताओं ने अपनी फ़िल्मों में इस शहर को अच्छे से चित्रित किया है? बेहतरीन, इस शहर का हर कोना, हर परत, वर्ग और आयाम को बेपर्दा करते हुए – धोबी घाट से लाइफ़ इन अ मेट्रो, वेक अप सिड से लंचबॉक्स, शोर इन द सिटी से मुंबई मेरी जान, आमिर से बॉम्बे तक… हम कई नाम ले सकते हैं। यह देखते हुए कि मुंबई कैसे दुनियाभर की पसंद है चाहे माजिद मजीदी की बियॉन्ड द क्लाउड्स हो या डैनी बॉएल्स की स्लमडॉग मिलियनेयर ।
मेरी नज़र में, मुंबई देखने के लिए राम गोपाल वर्मा की सत्या से बेहतरीन कोई फ़िल्म नहीं है। फिर आप ज़ोया अख़्तर की गली बॉय को क्यों देखना चाहेंगे, ख़ासतौर पर तब जब आप इसे पहले ही देख चुके हैं? ताकि आप इस मुंबई को एक बार फिर से देख सकें – जो बहुमंज़िला इमारतों और झुग्गी-झोपड़ियों में बुना हुआ है, जहाँ लोग प्यार भी करते है और जीते भी हैं। मेरी देखी फिल्मों में से, गली बॉय एकमात्र ऐसी फिल्म है, जिसमें अरब सागर का एक भी शॉट नहीं है। यह बात इस विशाल महानगर में रहने वाले बहुत से लोगों के लिए कड़वा सच है। समंदर तो भूल ही जाइए – वे अपने पैरों के नीचे की ज़मीन को भी ज़्यादा देर तक महसूस नहीं कर पाते हैं।
देखिए: द गोल्डन गर्ल्स