
आखिर भारतीय पुरुषों को अडल्ट होने में इतनी मुश्किल क्यों होती है
हमारे कल्चर में लाड़-प्यार में सिर चढ़ाने को प्यार जताना क्यों समझा जाता है?
शिकायत: ऐसे भारतीय पुरुषों के साथ रहना, जो बड़े तो हो गए हैं, लेकिन अभी तक अडल्ट नहीं हुए
लक्षण: जेंडर के आधार पर एक्सपेक्टेशंस रखना, मर्द हैं तो खुद का विशेषाधिकार समझना, रिश्ते में पक्षपात करना
संभावित कारण: या तो यह आदमी के साइज़ में एक आलसी भालू है, या इसके सिर पर एक लाड़-प्यार करके बिगाड़ने में लगीएक औरत का साया है
बीमारी: टॉक्सिक व्यवहार और शादीशुदा ज़िन्दगी में झगड़ों की भरमार
मसाई मारा की हमारी हॉलिडे ट्रिप पर, हमारा गाइड पैन्थेरा पार्डस, यानि की तेंदुए, के पेरेंटिंग रिचुअल के बारे में हमें समझा रहा था। मज़े की बात यह है, एक वक़्त आता है जब मादा तेंदुए को भी इंसानी पेरेंट्स की तरह ही एक उलझन का सामना करना पड़ता है: अपने बच्चों को उनके हाल पर छोड़ देने का सबसे सही वक़्त कब है?
40 साल की रिसर्च के बाद, हाल ही में यह पता लगा कि यह सही वक़्त, बच्चों के 12 से 36 महीने की उम्र के हो जाने के दौरान, कभी भी हो सकता है। और हालांकि उनके शावकों को बहुत से खतरों का सामना करना पड़ता है – अपने लिए खाने का इंतज़ाम करना, दूसरे जानवरों से खुद को बचाना – वो बड़ी आसानी से यह मैनेज कर लेते हैं।
लेकिन, सबसे विकसित प्रजाति, हमारे कॉन्टिनेंट के हिस्सों में पल रहे ये होमो सेपियंस, अपनी मां के बिना इन कंक्रीट के जंगलों में सर्वाइव नहीं कर पाते और यह अम्बिलिकल कॉर्ड दो साल की उम्र से लेकर, शायद, ताउम्र जुड़ी ही रह जाती है।
अगर आप ऐसा सोचते हैं कि यह हमारे भारतीय पुरुष के प्रति एक महिला की भड़ास है (हो सकता है आप सही हो), लेकिन इसके साथ ही आपको उन सभी रेस्पोंसेस पर विचार करना होगा, जो एक व्हाट्सप्प मैसेज के द्वारा मुझे मिले, जब मैंने महिलाओं से उनकी आपबीती जाननी चाही।
किसी मुफ़्त पॉलिटिकल प्रचार में भी ऐसा देखने में नहीं आया होगा, इतनी तेज़ी से सच्ची कहानियां निकलकर बाहर आने लगी, जितनी तेज़ी से तो शायद सेलिब्रिटीज़ भी दिवाली पार्टी के बाद एंटीलिया छोड़ते नहीं दिखते होंगे।
तो आखिर हमारे कल्चर में लाड़-प्यार में सिर चढ़ाने को प्यार जताना क्यों समझा जाता है? और क्या यह वाकई गलत है?
हमारे अलग-अलग जेंडर होने के बावजूद, मेरे भाई और मैंने हमेशा बराबरी से काम किया। हमें हर तरह की ज़िम्मेदारियां सौंपी जाती थी, और कभी-कभी तो फियर फैक्टर– स्टाइल चैलेंजेज़ दे दिए जाते थे – “जाओ, इस पब्लिक बैंक मैनेजर से जाकर बात करों, और कोशिश करो कि वह सिर्फ हमारे फिक्स्ड डिपॉज़िट पर इंटरेस्ट दुगना कर दे।”
सिंधी जोक्स एक तरफ – हमारे पेरेंट्स बहुत स्ट्रिक्ट थे, लेकिन उनकी इसी बात ने हमें मजबूर किया कि हम अपने काम खुद से करने के लायक बनें क्योंकि हमें पता था वे यह हमारे लिए नहीं करेंगे।
तो इसीलिए मुझे बहुत हैरानी होती है, जब मैं मांओं को अपने हट्टे-कट्टे बेटों को लेकर परेशान होते देखती हूं, खुद तकलीफ पाकर भी वे उनकी फालतू फरमाइशों को पूरा करने में लगी रहती हैं – फिर चाहे वह खाने में पचास ऑप्शंस हों, रहन-सहन की व्यवस्था हो, पहनने के लिए कपड़ों की ज़रूरतें हों – बस ऑफिस के कामों को छोड़कर, शायद बाकी सब कुछ।
मेरा बॉयफ्रेंड-जो अब-मेरा पति है, सात साल से विदेश में रह रहा था। मुझे समझ ही नहीं आता था कि वो अपना गीला टॉवल बिस्तर पर क्यों छोड़ देता है, बाद में अहसास हुआ कि उसे कभी किसी ने इस बात के लिए टोका ही नहीं था।
एक बार, मैंने अपनी मदर-इन-लॉ को उसकी दो दिन की बिज़नेस ट्रिप के लिए बैग पैक करते देखा। पूछा तो जवाब मिला, उन्हें मेरे लिए यह सब करना “अच्छा” लगता है।
34 वर्षीय अवंतिका* ने बताया, “यहां रहने वाले कई भारतीय पुरुष अपने काम खुद नहीं करते – बीवियों से उम्मीद की जाती है कि वे अपने बच्चों का बिलकुल वैसे ही ख्याल रखेंगी जैसे उनकी माएं उनका रखती चली आ रही हैं।”
“अपने जीवनसाथी को सम्मान देने के लिए, आप में भावनात्मक समझ होना बहुत ज़रूरी है – और यह सिर्फ पेरेंट्स ही अपने बच्चों को सिखा सकते हैं। तो जिन लड़कों ने अपनी बढ़ती उम्र में, अपने घर में ऐसा माहौल ही नहीं देखा हो, वह इसे अपने जीवन में कैसे लागू करेंगे?”
पुणे की, 35 वर्षीय एंटरप्रेन्योर, कामायनी* ने अपने ही घर में ऐसी कई रूढ़िवादी धारणाओं का सामना किया, “जहां उसके दोनों भाई एक उंगली भी नहीं हिलाते थे।”
वे मानती हैं कि अधिकांश औंरतें आदमियों से कहीं ज़्यादा आत्मनिर्भर होती हैं, लेकिन हमारी भारतीय मांओं का अपने बेटों के प्रति अगाध प्रेम, किसी भी हद तक जाकर उन्हें बिगाड़ने के लिए काफी है। “यही व्यवहार, भविष्य में उनके पार्टनर्स के लिए तकलीफदेह बन जाता है।”
35 वर्षीय एक्टर, जिसने 11 साल डेट करने के बाद अपने बॉयफ्रेंड से शादी की, प्रेरणा* ने शादी के बाद जाना कि उसके पति और देवर, दोनों की ज़िन्दगी उनकी मां के आसपास ही केंद्रित थी, जो उनके लिए ‘सबकुछ सही तरीके से करती थी’।
वह हंसते हुए बताती हैं, “यदि कभी मेरे पति कोई काम खुद से कर भी लेते – चाहे सादा नाश्ता ही बनाया हो, उसे एक बड़े इवेंट की तरह सेलिब्रेट किया जाता था।”
मांओं के इस ‘निर्दोष’ बहते लाड़-प्यार ने, 21 वीं सदी की कामकाजी महिलाओं के लिए, उम्मीदों का एक जीता जागता नर्क तैयार कर दिया है।
क्या अपने पति के लिए किए गए मेरे काम, जो वह खुद भी बड़ी आसानी से कर सकता है, यह निर्धारित करेंगे की मैं उसे कितना चाहती हूं? बिलकुल नहीं।
सच यही है, एक औरत के रूप में हमारी भूमिकाएं हमेशा से बहुत ज़्यादा रही हैं – प्रोफेशनल एक्सपेक्टेशंस पर खरे उतरना, सामाजिक रिश्तेदारियां निभाना, बच्चें पालना, घर को संभालना, सबके खाने-पीने का ध्यान रखना, और तो और दूर के किसी दादाजी के लिए बर्थडे प्रेसेंट खरीदना भी हमारी ही ज़िम्मेदारी है।
ऐसा तो है नहीं कि हम केवल एक गुफा में एक के बाद एक काम इकठ्ठा करने के लिए फालतू बैठे हैं। तो, क्या वाकई हमें एक अच्छे-खासे अडल्ट के निजी कामों को भी अपने खाते में जोड़ना ज़रूरी है?
वो भी इसलिए क्योंकि वह खुद इन्हें नहीं कर रहा, और अभी तक इस गाड़ी को हमारी महान भारतीय माएं चलाती आ रही थी।
मुंबई में रहने वाली, एक 43 वर्षीय जर्मन महिला, क्लेयर ने एक भारतीय से शादी की। उनको भारतीय मातृशक्ति का अंदाजा लगाने और उससे निपटने में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
वह बताती हैं, “मेरे पति के कपड़े मेरी मदर-इन-लॉ खरीदती थी – यहां तक की उसकी अंडरवियर भी।”
तीस साल से ज़्यादा उम्र का होने के बावजूद, उसका पति अपने पैरेंट्स पर फाइनेंशियली डिपेंडेंट था, लेकिन अपनी आय से कहीं ज़्यादा हाई लाइफस्टाइल मेन्टेन करता था। उसे तो लगता था, उनकी यही स्पून-फीडिंग, उसके पति की प्रोफेशनल और पर्सनल ग्रोथ को नुक्सान पहुंचा रही थी।
फैमिली होम छोड़कर अलग रहने और थेरेपी के कुछ सेशंस लेने के बाद, उसके पार्टनर के व्यवहार में बदलाव आने लगे और उसने ज़िम्मेदारी उठाना शुरू किया।
एमपॉवरमाइंडस की साइकोलॉजिस्ट, जेनिशा शाह कहती हैं कि भारतीय माएं अपनी बेटियों की परवरिश ऐसे करती हैं ताकि वह सख्त बनें और “हर मुश्किल का सामना कर सकें”।
“समय के साथ, भूमिकाएं निर्धारित हो गई है – भारतीय औरत की भूमिका पूरे घर को संभालना और भारतीय पुरुष की भूमिका सिर्फ पैसा कमाना। यह बहुत गहराई तक समा गया है। आज, जब मैं एक 40 साल के आदमी को कॉउंसिल करती हूं, ऐसा लगता है जैसे उसके सामने एक बिलकुल नया आईडिया रखना पड़ रहा है।”
इस जेनेरशन गैप को पाटना इतना आसान नहीं है।
कई दशकों से, महिलाओं ने अपनी पूरी ज़िन्दगी अपने पेरेंट्स, पतियों और बच्चों की देखरेख में गुज़ार दी, क्योंकि वह कभी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं थी।
हालांकि, इस समस्या का एक बहुत बड़ा कारण हैं – बच्चों पर जान छिड़कने वाली माएं, लेकिन बहुत लोग मानते हैं कि इसका समाधान भी ये ही हैं।
42 वर्षीय माया*, एक मार्केटिंग कंसलटेंट, का विश्वास है कि यह मां का हाथ पकड़ कर चलने की आदत बदली जा सकती है, यदि बच्चों को समय रहते अपनी देखभाल खुद करना सिखाया जाए, फिर चाहे जेंडर कोई भी हो।
“उनकी मां उनके सारे काम खुद करती थी, नतीजा यह हुआ कि मेरा पति और उसका भाई, अब अपने रोज़मर्रा के काम भी खुद से नहीं कर पाते – चाहे वह बैंक सम्बंधित पेपरवर्क हो या हमारे पहले बच्चे के पालने की असेंबली।”
माया को लगता है, ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि ना चाहते हुए भी उसकी मदर-इन-लॉ को मज़बूरी में यह सब करना ही पड़ता था, घर में कोई और ये ज़िम्मेदारी उठाना ही नहीं चाहता था। उसका मानना है, “ज़िम्मेदारी से भागने की आदत, जीवन के हर पहलू में घर करने लगती है – चाहे हॉलिडे प्लान करना हो या अपने पर्सनल काम।”
लेकिन, अभी भी उम्मीद बाकी है। एक 11 साल के बच्चे की मां के रूप में, उसका विश्वास है कि आने वाली जेनेरशंस में बदलाव लाने के लिए, हम भारतीय महिलाओं को एकजुट होकर सबके समक्ष एक सही उदाहरण रखना होगा।
अगर आप चाहती हैं, आपके शावक खुद के बलबूते पर सर्वाइव करें और प्यार करने वाले, सम्मानित लोगों – और एक अच्छे जीवनसाथी की श्रेणी में शामिल हों – तो कॉर्ड को काटने का सही वक़्त आ गया है।
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