
'घर के काम आज भी औरतों के ही जिम्मे क्यों हैं?' - कोरोनावायरस पारंपरिक भारतीय परिवार की नींव हिला रहा है
“अगर उसे घर के किसी काम में हाथ बटाने के लिए कहा जाए, तो उसका पहला जवाब होता है, ‘पर ये तो मेरा काम नहीं है'”
छठी क्लास में, हमें साइंस लैब में ले जाया जाता था जहां हम, पेट्री डिश में तैरते, उस बेचारे अमीबा प्रोटियस को घिनौनी निगाहों से घूर-घूर कर देखते थे। अब इस लॉकडाउन में एक महीने से ज़्यादा बिताने के बाद, मैं समझ सकती हूं कि उन बेचारों को कैसा महसूस होता होगा।
अपने ही घर की चारदीवारी में बंद रहने और नेटफ्लिक्स को तले तक खुरच-खुरच कर देख लेने के बाद, हम भी बारीकी से अपने इस लाइफस्टाइल की जांच करने के लिए मजबूर हो गए हैं, जिसका हमारी नज़रों में आज तक कोई ख़ास महत्व ही नहीं था।
और इसके बाद एक सच खुल कर सबके सामने आ गया है।
माना कि पिछले कुछ दशकों में, महिलाओं ने अपनी पूरी ताकत और फोकस के साथ कांच की कई दीवारों को तोड़कर अपने लिए नए मुकाम हासिल किये, लेकिन हम उन मजबूत औरतों को कैसे भूल सकते हैं जो आज भी घर पर रूककर हमारा इंतज़ार करती हैं।
मेरे कॉलेज के व्हाट्सप्प ग्रुप से लेकर रेड्डिट थ्रेड तक और अब ट्वीक इंडिया इनबॉक्स पर भी, लोकप्रिय लॉकडाउन एंथम ‘गो कोरोना, गो’ की जगह एक निराश सवाल ने ले ली है: “आज भी औरतों से ही क्यों घर के काम करने की उम्मीद लगाई जाती है?”
इस (जेंडर) अंतर पर ध्यान दें
2019 में, इकोनॉमिक कोऑपेरशन तथा डेवलपमेंट आर्गेनाईजेशन द्वारा कुछ आकड़ों का खुलासा होने के बाद ऐसा महसूस हुआ जैसे किसी ने बर्फीले ठन्डे पानी की बाल्टी हमारे सिर पर उंढेल दी हो।
उनके सर्वे के अनुसार, भारतीय महिलाएं एक दिन में 352 मिनट घर के काम करने में व्यतीत करती हैं – भारतीय पुरुषों से 577% ज़्यादा, जिनका घर के काम में योगदान मुश्किल से 52 मिनट का होता है।
इसके विपरीत, यह अनुपात दूसरे विकासशील देश जैसे चीन में (234: 91) या यहां तक कि दक्षिण अफ्रीका में (250: 103) है।
इसमें कोई आश्चर्य नहीं, नीलसन कंपनी द्वारा 21 देशों में 6,500 महिलाओं पर किये एक सर्वे के दौरान, भारत की वर्किंग वीमेन को ‘मोस्ट स्ट्रेस्ड’ टाइटल से नवाज़ा गया। 87% भारतीय महिलाओं ने माना कि वे ज़्यादातर समय तनाव और थकान महसूस करती हैं, और 82% ने कहा कि उन्हें आराम करने का समय ही नहीं मिलता।
अब देखना ये है कि क्या गवर्मेंट द्वारा लागू हफ़्तों के इस हाउस अरेस्ट ने हमारे पार्टनर्स को अपने मोज़े फर्श पर इधर-उधर छोड़ने के बजाय, उन्हें ऊपर चढ़ाने के लिए उकसाया है?
इस सच की तह तक पहुंचने के लिए, हमने तीन महिलाओं से बात की जो विभिन्न शहरों और अलग-अलग फैमिली बैकग्राउंड से होने के बावजूद, अपने घरों में होने वाले जेंडर सम्बंधित भेदभाव पर एकजुट हैं।
ये उनकी कहानियां हैं:
घर का काम आखिर किसका काम है?
एम शर्मा, जॉइंट फैमिली में रहने वाली दो बच्चों की मां
मुंबई

मुझे मेरी मदर-इन-लॉ का बहुत बड़ा सहयोग रहा है। मैं ‘वर्क फ्रॉम होम’ करती हूं, तो वह घर के काम में मेरा हाथ बटाने के लिए लंच बनाती हैं और मैं ऑफिस का काम ख़त्म करने के बाद डिनर तैयार कर लेती हूं।
लॉकडाउन के शुरूआती कुछ दिन बहुत तनावपूर्ण थे क्योंकि हमें इतना फिज़िकल वर्क करने की आदत नहीं रही थी।
हालांकि, इन दिनों मेरे हस्बैंड और फादर-इन-लॉ ने अपने बर्तन और कपड़े खुद धोना शुरू कर दिया है, लेकिन इसके लिए हमें उन्हें बार-बार याद दिलाना पड़ता है। शुरू के दिनों में, मेरी मदर-इन-लॉ को यह बहुत बुरा लगता था और वह खुद कर लेती थी, फिर धीरे-धीरे उन्हें भी यह अहसास होने लगा कि एक व्यक्ति के लिए इतना काम अकेले संभालना बहुत मुश्किल है।
पुरुष यह मान कर चलते हैं कि घर के काम केवल एक महिला की जिम्मेदारी है – क्योंकि वे ऑफिस के काम के लिए घर से बाहर जाते हैं, इसलिए उनसे घर के काम करने की उम्मीद नहीं लगाई जानी चाहिए।
जबकि महिलाएं, किसी भी तरह, ऑफिस संभालने के साथ-साथ, घर के सभी काम और परिवार के हर सदस्य की ज़रूरतों को पूरा करती हैं।
मैं, हमारे घर में, पुरुषों की तीन पीढ़ियों के साथ रह रही हूं और मुझे अभी से अपने 15 वर्षीय बेटे में भी यही व्यवहार दिखने लगा है।
अगर उसे घर के किसी काम में हाथ बटाने के लिए कहा जाए, तो उसका पहला जवाब होता है, “पर ये तो मेरा काम नहीं है”।
दूसरी ओर, मेरी बेटी जो अभी उम्र में काफी छोटी है, बिन बोले अपने सामर्थ्य के अनुसार, मेरी मदद को हमेशा तैयार रहती है। शायद इसलिए क्योंकि वह अपनी मां और दादी को भी यही करते देखती है। बच्चे अपने बड़ों का अनुसरण ही तो करते हैं।
इस लॉकडाउन में एक अच्छी खबर ये है कि मेरी फैमिली के पुरुषों में बहुत बदलाव आया।
कुछ ही दिनों पहले अपने पिता से फ़ोन पर बात की, तो उन्होंने मां के कमर दर्द का जिक्र किया। मैंने पूछा, “अभी बाईयां नहीं हैं, तो क्या आप घर के काम में उनकी मदद कर रहे हैं? आप इस उम्र में उनसे सारे काम खुद करने की उम्मीद नहीं कर सकते, दर्द होना तो स्वाभाविक है।” अगले दिन, मां से बात करने पर पता चला कि पापा ने घर के काम में हाथ बटाना शुरू किया है। सुनकर बहुत सुकून मिला।
मेरी बहनों के पति भी कुकिंग और गार्डनिंग कर रहे हैं – ऐसे काम जो उन्होंने पहले कभी नहीं किए – और वे वास्तव में इसका आनंद उठा रहे हैं।
ये देखकर बहुत प्रेरणा मिलती है कि कैसे पुरुष बदल रहे हैं और अपनी पत्नियों को सपोर्ट करना सीख रहे हैं। मैं हर दिन अपने बेटे को यह समझाने की कोशिश करती हूं, “महिलाएं दिन पे दिन विकसित हो रही हैं, तो यदि तुम अभी से जेंडर इक्वालिटी के महत्व को नहीं समझोगे और इस फैक्ट को जल्द से जल्द नहीं अपनाओगे कि घर के काम सिर्फ महिलाओं की जिम्मेदारी नहीं हैं, आगे जाकर ये मानसिकता तुम्हारे रिश्तों पर प्रभाव डालना शुरू कर देगी।” मैं आशा करती हूं कि मेरी ये छोटी सी कोशिश उसे एक बेहतर इंसान बनने में मदद करेगी।
अनीता डी’सूज़ा, टीचर और तीन बच्चों की मां
गोवा
वर्क फ्रॉम होम के पहले कुछ हफ्ते, पागल कर देने जैसे थे। ऑनलाइन टीचिंग का कांसेप्ट बिलकुल नया था, हमारे पास घर पर कुछ ख़ास स्टडी मैटेरियल नहीं था और ऊपर से मेरा पूरा दिन स्टूडेंट्स, पेरेंट्स और आई टी डिपार्टमेंट के बीच तालमेल बिठाने में ही निकल जाता था…मन करता था कि फ़ोन को उठाकर खिड़की से बाहर फेंक दूं।

एक टीचर और मां होने के नाते, मैं इस समस्या के दोनों पक्षों को समझती हूं। कुछ स्कूल पेरेंट्स हमारी आलोचना करते रहते हैं लेकिन वे यह नहीं समझते कि हम टीचर्स भी एक नयी चीज़ के साथ संघर्ष कर रहे हैं। और साथ ही हमें घर के काम, अपने बच्चों की देखभाल भी करनी होती है… तो हमारा पूरा दिन इसी में खप जाता है।
एक पैरेंट के रूप में, मैंने महसूस किया कि क्लासरूम सेट-अप एक बेहतर ढांचे में ढला होता है। घर पर बच्चे बहुत रेसिस्टेंट होते हैं और समय बर्बाद करते हैं। “पहले मैं ड्राइंग करूंगा, फिर इंग्लिश, फिर मैं एक ब्रेक लूंगा और फिर मैथ शुरू करूंगा…”
कुछ भी क्रिएटिव करने के लिए उनमें बहुत उत्साह होता है, लेकिन अगर घर के काम करने की बात आए, तो उंगली अपने आप किसी और की तरफ इशारा करने लगती है। और आखिर में भाग्य का पहिया घूम-फिर के मेरे ऊपर ही आकर रुक जाता है।
मेरे पति सुबह जल्दी घर से निकल जाते हैं और शाम आठ बजे तक लौटते हैं, तो उन्हें जितना भी समय बच्चों के साथ मिलता है, वे एक फन पैरेंट बन कर बिताना चाहते हैं।
आदमियों को सिर्फ वो काम करने में मजा आता है जो उनके लिए चैलेंजिंग हो और जिसमें वे कुछ नया कर सकें। जैसे ही वो एक रोज़मर्रा के काम में बदल जाता है, वे उससे बोर हो जाते हैं।
सौभाग्य से, मैंने नोटिस किया है कि अब वह घर के कामों में आगे आना शुरू कर रहे हैं, और पहले से कहीं ज़्यादा सहयोग दे रहे हैं, खासतौर पर बच्चों के साथ।
मियां-बीवी के झगड़ों के अलावा – उनसे काम करवाने के लिए अभी भी गला फाड़कर चिल्लाना तो पड़ता ही है – रूटीन थोड़ा शांत और सरल हो गया है।
मुझे नहीं लगता कि जिम्मेदारी का पूरा भार अब मुझ अकेले पर है।
यह लॉकडाउन पुरुषों को उन सभी कार्यों की सराहना करने का एक मौका दे रहा है जो उनकी पत्नियां और मांएं करती हैं।
लेकिन एक बार स्कूल शुरू हो जाने के बाद, सबकुछ फिर से पहले जैसा हो जाएगा। मुझे नहीं लगता की ये आचरण बहुत दिनों तक चलेगा।
ललिता यादव, दो बच्चों की सिंगल मॉम
दिल्ली

जब लॉकडाउन शुरू हुआ था, मैं बहुत खुश थी क्योंकि अभी तक मुझे अपने काम और एनजीओ, आदिशक्ति शिक्षा फाउंडेशन को संभालने के बाद अपने बच्चों के साथ ज़्यादा समय बिताने को नहीं मिलता था।
पर एक पैरेंट होने के नाते आप हमेशा अपराधबोध महसूस करते हैं।
ऑनलाइन क्लासेज़ कहीं ज़्यादा मुश्किल हैं – आप एक कमरे से दूसरे कमरे के बीच दौड़ लगा रहे होते हो और बच्चे हर समय “मम्मी, मम्मी” का राग अलापते रहते हैं। जब तक उनकी क्लासेज़ ख़त्म होती हैं, मुझे ऐसा महसूस होता है जैसे मैं खुद स्कूल से लौटी हूं।
इस सब में मेरी प्रोडक्टिविटी बिलकुल ज़ीरो है।
सोचती हूं, अगर मैं एक फुल टाइम जॉब कर रही होती, तो कोई भी कंपनी मुझसे प्रोडक्टिविटी और अपने काम पर ध्यान देने की उम्मीद लगाती। पर इस काम के साथ, मैं कैसे घर के काम, कुकिंग और बच्चों की देखभाल मैनेज कर पाती?
अब तो कई असुरक्षाएं मेरे अंदर घर करने लगी हैं। अगर ये इसी तरह चलता रहा तो मैं कैसे मैनेज करूंगी, यह चिंता मेरे मन की शांति को खाए जा रही है और मैं किसी भी काम में फोकस नहीं कर पा रही हूं।
ग्रोसरी लाना और अपना कमरा खुद साफ़ करके मेरे बेटे मेरी मदद करते हैं। लेकिन अपनी एक्सटेंडेड फैमिली के साथ रहने के बावजूद, घर के रोज़मर्रा के कामों की जिम्मेदारी आखिर में औरतों के ही सिर पर आती है।
चाहे अमीर हों या गरीब, फ़िल्में हों या किताबें, ये उनमें अंदर तक भरा हुआ है क्योंकि वे आदमियों को ऐसे काम करते कभी देखते ही नहीं हैं।
मेरे पापा खाने के बाद सबकुछ टेबल पर ही छोड़कर उठ जाते हैं। मेरा भांजा अपनी गर्लफ्रेंड के साथ रह रहा है, और जब मेरी मां को पता चला कि वह बर्तन धोता है, उनके आंसू निकल आए।
मन तो बहुत करता है कि उन्हें समझाऊँ, लेकिन मैं उन्हें दुखी नहीं करना चाहती। ज़्यादा बहस करने से, पेरेंट्स को लगता है कि बच्चे उनके साथ दुर्व्यवहार कर रहे हैं क्योंकि वे अब बूढ़े हो गए हैं।
समस्या ये है कि आदमी एक या दो दिन के लिए चार्ज संभाल भी लें पर वे इसे कभी भी अपनी जिम्मेदारी मानने के लिए तैयार नहीं हैं। वे सोचते हैं, “यह तो कर ही रही है, इसके लिए करना ज़्यादा आसान है, तो मैं क्यों बेकार ही इसमें घुसूं?”
मैं नहीं चाहती मेरे बेटे भी बड़े होकर ऐसे ही बनें। इसलिए मैं ये सुनिश्चित करती हूं कि वे अभी से यह सीखे कि किचन केवल महिलाओं की जगह नहीं है।
हम कहां से शुरू करें?
मार्गरेट थैचर एक मीम लेजेंड बन गई जब उन्होंने कहा, “अगर आप कुछ कहलवाना चाहते है, तो एक आदमी से कहें। लेकिन अगर आप कुछ करवाना चाहते हैं, तो एक औरत को कहें।”
शर्मा की तरह जिन्होंने अपनी ट्रेडिशनल मदर-इन-लॉ को नियम बदलने के लिए आश्वस्त किया, और यादव जो संवेदनशील पुरुषों की एक नई जनरेशन को तैयार कर रही हैं, समय आ गया है कि अपनी टू-डू लिस्ट में ‘घर पर जेंडर के आधार पर निभाई जा रही भूमिकाओं को चैलेंज करना’ भी शामिल कर लिया जाए।
बच्चों के जिम्मे घर के काम सौंपने और घरेलू भूमिकाओं के बारे में चर्चा करते समय सही शब्दों का इस्तेमाल (जैसे चाइल्डकेयर में पिता मदद नहीं करते, बेबीसिटर करती है) से लेकर अपने पार्टनर से अपनी उम्मीदों को लेकर दिल खोल कर बातचीत करें। अगर हम खुद अपने आचरण में लागू करके उन्हें ये सिखाएंगे, तो ये छोटे-छोटे कदम आगे जाकर बहुत गहरा प्रभाव डालेंगे।
तो अगली बार जब आप चमकते कवच में अपने शूरवीर को आपके पैरों तले से जमीन हिलाते देखें, उसके हाथ में झट से एक झाड़ू थमा दें और असली काम में अपना शौर्य दिखाने को कहें।
2020 में लड़कों की परवरिश पर कोंकणा सेन शर्मा की सलाह