
क्यों भारतीय अर्बन मिलेनियल्स छोटे शहरों की ओर रुख कर रहे हैं?
एक नई शुरुआत, स्वच्छ हवा और ताज़ी-ताज़ी सब्ज़ियों के लिए
चार्ल्स डिकन्स के शब्दों में कहें, तो प्रवास यानी माइग्रेशन, हमेशा दो शहरों की कहानी होती है। एक होता है महानगर, जो आपके सपनों और इच्छाओं को पंख लगा देता है। यहां मिलती हैं नौकरियां, नाम और शोहरत कमाने के अवसर, और हां, टिंडर मैच भी। यहीं आप अगला शाहरुख़ बनने का या अपना ख़ुद का एक ऐंटीलिया बनाने का सपना देखते हैं। और होता है एक छोटा शहर, जिसे आप अपने इन्हीं सपनों को पूरा करने के लिए छोड़कर जाना चाहते हैं। कई दशकों से, लगातार अनगिनत लोग अपने होमटाउन छोड़ कर इन महानगरों का रुख़ करते रहे हैं, ताकि वो अपने सपने पूरे कर सकें, अपने लिए एक मुकाम बना सकें। लेकिन अब, ‘सपनों के पीछे भागने वाली’ वह जनरेशन रिटायर हो चुकी है और हमारे भारतीय अर्बन मिलेनियल्स धीरे-धीरे गांवों की राह पकड़ रहे हैं।
हमेशा ट्रैफिक से जाम रहने वाले उन महानगरों में, लोग अपने फेफड़े चलते रखने के लिए ऑक्सिजन बारों का रुख़ करने लगे हैं। कुछ दिसंबर में हो रही बेमौसम बरसात से तो कुछ टॉक्सिक वर्क कल्चर से पूरे साहस के साथ जूझने की कोशिश कर रहे हैं।
यह तथ्य शायद इस नयी मिलेनियल लहर को समझने के लिए काफी है: रूरल (ग्रामीण) मिलेनियल्स। वे बिलकुल आपकी तरह हैं। दरअसल, लगभग आपकी तरह हैं। वे कॉर्पोरेट सेक्टर में काम तो करते हैं, पर कॉर्पोरेट गुलाम नहीं हैं। वो वर्कआउट भी करते हैं। हालांकि हमेशा जिम में नहीं पर कभी-कभी खेतों में भी।
यह इस दशक का सच का सामना वाला पल है: ज़्यादातर लोग इन दिनों बसने के लिए छोटे शहरों का रुख़ कर रहे हैं। यही है, जिसे एक्सपर्ट ‘रिवर्स माइग्रेशन’ का नाम देते हैं।
हमने चार ऐसे भारतीय अर्बन मिलेनियल्स से बातचीत की, जिन्होंने भागते-दौड़ते महानगरों को छोड़कर शांति की तलाश में छोटे शहरों में जीवन बसर करने का अनुभव हमारे साथ बांटा। उन्होंने इस भीड़भाड़ से दूर ऐसी जगहों को चुना जहां गूगल मैप भी अब तक नहीं पहुंचा है, लेकिन वहां ख़्याल रखनेवाले पड़ोसी और प्रकृति लगातार उनके साथ बने रहते हैं।
गौतम रेड्डी और निशा सुब्रमनियम: मुंबई से कन्नारपेट
इस कपल ने मुंबई में चार सालों तक ‘टीच फ़ॉर इंडिया’ के लिए काम किया था, लेकिन वे देश के ग्रामीण क्षेत्रों में बदलाव लाना चाहते थे। तो जैसे ही उन्हें तमिल नाडु के बाहरी हिस्सों में एनजीओ द्वारा चलाए जाने वाले पांच स्कूलों को मैनेज करने का अवसर मिला, उन्होंने तुरंत इसे लपक लिया।
गौतम कहते हैं, “ये बिल्कुल वैसा काम था, जैसा हम करना चाहते थे। अब हम एक स्कूल परिसर में ही रहते हैं। कल्पना कीजिए कि इस 2.5 एकड़ की जगह में हम दोनों अकेले रहते हैं। तीन साल हो चुके हैं और हम अब भी यहीं रहना चाहते हैं।”
हां, इन भारतीय अर्बन मिलेनियल्स को कुछ शुरुआती समस्याएं ज़रूर हुई – इनके लिए स्विगी और उबर जैसी आदतों को छोड़ना, सिगरेट छोड़ने से भी ज़्यादा कठिन साबित हुआ। अब, उनके लिए सबसे पास का मार्केट भी लगभग 12 किलोमीटर लम्बी हाईक जैसा है। इस लाइफस्टाइल की मदद से वह अब और भी अनुशासित हो गए हैं।
गौतम बताते हैं, “अब हम ज़्यादा ध्यान रखने लगे हैं। क्योंकि हमें पता है कि यदि हमारे पास राशन ख़त्म हो गया है तो हमें बिना डिनर किए ही सोना पड़ेगा और उठने पर नाश्ते का भी कोई इंतज़ाम नहीं होगा।”

उनकी दो साल की बेटी को घास के ख़ाली मैदानों में दौड़ लगाना बहुत पसंद है और जल्द ही वह पेड़ों पर भी चढ़ने लगेगी। हालांकि, उनकी बेटी का पीडिअट्रिशन और जनरल डॉक्टर 12 किलोमीटर दूर रहते हैं, लेकिन उनके पड़ोसी हर ज़रूरत पर उनकी मदद के लिए हाज़िर रहते हैं।
गौतम कहते हैं, “आपको ऐसी उदारता और अपनापन बड़े शहरों में नहीं मिलता है। आपको तो ये भी नहीं पता होता कि आपके पड़ोसी कौन हैं। लेकिन यहां तो पूरा गांव जैसे एक परिवार की तरह है। इससे आपको वो उम्मीद मिलती है, जिसकी आज की दुनिया में बहुत ज़रूरत है।”
विजय रामकृष्णन: दुबई से देहरादून
मुबंई, स्विट्ज़रलैंड, केप टाउन और दुबई, रामकृष्णन ने उन सात सालों में, जब वे ‘अर्नस्ट ऐंड यंग’ के लिए मर्जर ऐंड ऐक्विज़िशन कंसल्टेंट की तरह काम करते थे, हर तरह के महानगरों का अनुभव लिया है।
दुनियाभर के तूफ़ानी दौरे के बाद, रामकृष्णन और उनकी पत्नी सौम्या ने थोड़ी राहत लेने का मन बनाया: एक साल की छुट्टी जिसके लिए उन्होंने देहरादून का रुख किया। ढाई साल हो चुके हैं और वो दोनों अब वहीं कुत्तों के लिए ट्रेनिंग और बोर्डिंग सर्विस चलाते हैं और वहीं से कंसल्टेंट की तरह काम भी करते हैं।
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रामकृष्णन बताते हैं, “स्विट्ज़रलैंड में, मैं यह देखकर चकित हो गया कि वहां के कुत्ते कितने शिष्ट हैं। यहां अपने सबैटिकल के दौरान, मैंने कारपेन्ट्री, वुडवर्क और कुत्तों को ट्रेनिंग देने का काम सीखा।”
अब यह फुल-टाइम डॉग पैरेंट मानते हैं कि वे इससे पहले कभी इतने खुश नहीं थे और अब वे ऐसी चीज़ें कर रहे हैं, जिनके बारे में बड़े शहरों में सोचा भी नहीं जा सकता है: सर्दियों के समय आंगन में बैठकर धूप के मज़े लेना, वीकेंड ट्रेक पर जाना और अपने लिए ख़ुद फसल उगाना।
वो कहते हैं, “हम मूली, शलजम, कद्दू, मिर्च, धनिया और पालक उगाते हैं। ऐसा लगता है, जैसे यह अपने-आप में एक छोटा सा बाज़ार हो। हम अपने कचरे से खाद भी बनाते हैं। इससे हमें बहुत अच्छा और सस्टेनेबल महसूस होता है, जैसे हम वाकई में कुछ बदलाव ला रहे हैं।”
गौरव प्रमानिक: दिल्ली से सिलीगुड़ी
उनके माता-पिता दिल्ली से पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी शिफ़्ट हो रहे थे, और गौरव ने तय किया कि वो आईटी कंसल्टेंसी के अपने काम से थोड़ा ब्रेक लेकर अपने माता-पिता को नई जगह सेटल करने में मदद करेंगे। और इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है, गौरव फिर कभी दिल्ली और उसकी धुंध में नहीं लौटे।
“शुक्र है, मैंने कॉलेज में साहित्य पढ़ा था और मुझे यह बहुत पसंद भी था। अब मैं आधुनिक भारतीय साहित्य पढ़ाता हूं और जेंडर इशूज़ पर जागरुकता बढ़ाने के लिए वर्कशॉप्स भी करता हूं,” गौरव बताते हैं। “पुरानी कई जगहों पर जहां मैंने काम किया, वहां मेरे सेक्शुअल ओरिएंटेशन के चलते मुझे बहुत बुली किया गया। मैं लोगों को मज़बूत बनाना चाहता हूं, ताकि वे ऐसी स्थितियों का बेहतर ढंग से सामना कर सकें।”
हां, वे दिल्ली में होने वाली पार्टीज़ और इवेंट्स को मिस ज़रूर करते हैं और साथ ही अपनी आर्थिक स्थिति के बारे में भी उन्हें अच्छी तरह पता है।

“हालांकि, अब मैं पहले की तुलना में बहुत कम कमाता हूं, लेकिन मेरे ख़र्चे भी तो कम हुए हैं। यहां करने के लिए कुछ ख़ास नहीं है। दिल्ली में, मैं अक्सर थिएटर या कॉन्सर्ट देखने सिरी फ़ोर्ट या इंडिया हैबिटैट सेंटर जाता था। यहां, तो ऐसी चीज़ें का कोई नामोनिशान ही नहीं,” वो कहते हैं।”
लेकिन जब किसी को बिरजू महाराज के डांस या हमेशा के लिए ताज़ी हवा में से किसी एक को चुनना हो, तो जवाब ख़ुद ब ख़ुद मिल जाता है। यह जानने के बाद कि सिलीगुड़ी की अपनी प्राइड मार्च है और बढ़ती एलजीबीटीक्यूआईए+ कम्यूनिटी है, मेरे लिए यहां आकर बसना और आसान हो गया है।
“यहां मुझे किसी से छुपाना नहीं पड़ता कि मैं कौन हूं,” गौरव कहते हैं।
सुखदा चौधरी: मुंबई से नागपुर
वे नागपुर में पली-बढ़ीं और वहां से अहमदाबाद आने के बाद अपने सपनों को पूरा करने अंतत: मुंबई आ गईं। इस शहर में सात साल रहने के बाद उन्हें महसूस हुआ कि वे इस तरह के भागमभाग वाले जीवन के लिए नहीं बनी हैं।
“वहां सोमवार शुरू नहीं हुआ कि शुक्रवार आ जाता था। मेरे पास अपने लिए समय ही नहीं था। और यदि आप क्वालिटी की बात करते हैं तो वो तो किसी भी बड़े शहर में बेहतर नहीं होने वाली। ट्रैफ़िक, मौसम, प्रदूषण हर चीज़ ग्राफ़ में नीचे की ओर ही आ रही है,” वो नागपुर से हमसे बात करते हुए कहती हैं, जहां वे फ़िलहाल रह रही हैं।
अपने होमटाउन नागपुर में, बतौर ऑन्ट्रप्रनर वे Chaos Theory चलाती हैं, जो शहर का सबसे बड़ा को-वर्किंग स्पेस है। नागपुर में रहने की वजह से उन्हें अपनी हॉबीज़ को पूरा करने का समय भी मिलने लगा है।
“मैंने भोजन प्रेमियों यानी फ़ूडीज़ के लिए एक कम्यूनिटी की शुरुआत की है। आज इस फ़ेसबुक कम्यूनिटी के 45 हज़ार फ़ॉलोअर्स हैं और हम अक्सर मिलते भी रहते हैं। मैंने एक बुक-स्वापिंग क्लब भी शुरू किया है। इसके 150 सदस्य महीने में एक बार मिलते हैं और एक-दूसरे के साथ बुक्स एक्सचेंज करते हैं,” वे बताती हैं।

लेकिन ऐसे भारतीय अर्बन मिलेनियल्स, जो छोटे शहरों में जाकर बसना चाहते हैं, उन्हें बहुत सी हिम्मत रखने और ख़ुद को मॉडर्न सोसाइटी की इस रैट रेस से बाहर रखने की पूरी कोशिश करनी चाहिए। आप कॉम्पेटिटिव नहीं हो सकते।
“रिसोर्सेज़ सीमित होते हैं। हर काम धीमी गति से होता है और अवसर भी कम ही होते हैं। यदि आप इन बातों को स्वीकार कर सकते हैं तो छोटे शहरों का जीवन आपके लिए बिल्कुल पर्फ़ेक्ट है,” सुखदा कहती हैं।
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