
बिना किसी अपराधबोध के 'ना' कैसे कहें
हमेशा दूसरों को खुश करने में लगे रहने वालों – यह आपके लिए है!
टीना फ़े की एक प्रसिद्ध लाइन है- “अभी हाँ कर दो, बाद में देख लेना क्या करना है।” बढ़ती उम्र में, मैंने अपनी फेवरेट टीना फ़े की इस बात को इतना दिल से लगा लिया कि किसी भी बात के लिए ‘ना’ कैसे कहें, यह सीखने की कोशिश तो दूर, कभी हिम्मत भी नहीं की। नतीजा – जरूरत से ज़्यादा काम अपने सर पर ले लेने की वजह से मेरी आंखों के ‘डार्क सर्कल्स’ को भी ‘डार्क सर्कल्स’ हो गए। अपनी माँ द्वारा सुझाए लड़को की लम्बी लिस्ट को डेट करना (जो कि कभी भी एक सही आईडिया नहीं होता) और बिना सोचे-समझे हर प्लान के लिए हाँ कर देना, इस चक्कर में पता ही नहीं चला कि मैं कब गले तक मिठाईयों में डूब गई। सोते-जागते, ये ‘डेज़र्ट’ मेरे लिए एक स्ट्रेस दूर करने का जरिया बन गए।
बहुत बाद में मुझे यह समझ में आया, टीना की कही यह बात एक बेहतर शुरुआत करने का पहला नियम था (कॉमेडी के क्षेत्र में), न कि असल ज़िदगी में। यहाँ जब सवाल ‘हाँ’ या ‘ना’ का हो, तो वह किस सन्दर्भ में है, यह समझना बहुत जरूरी है।
ऐसे समाज में, जहां हमें आशीर्वाद लेने के लिए जबर्दस्ती ऐसे रिश्तेदारों के पैर छूने को कहा जाता है, जिन्हें हम जानते तक नहीं, और जब हम किसी काकी के-भाई की-चाची की शादी में जाने से मना कर देते हैं, तो हमें फ़ैमिली से बाहर कर दिया जाता है— वहां कोई भी, कभी भी हमें ‘ना’ कहना नहीं सिखाता। तो आइये, आज हम पता लगाते हैं कि न चाहते हुए भी अक्सर आपके लिए मना कर पाना इतना मुश्किल क्यों हो जाता है, और अपने रिश्तों को ख़राब किए बिना, किसी को इंकार करने के क्या विनम्र तरीके हो सकते हैं?
‘ना’ कैसे कहें: एक अतिआवश्यक गाइड
ना ना नाना नाना नाना
बचपन से ही हर बात के लिए ‘हामी भरने’ की आदत हमारे अंदर कूट-कूट कर भरी जाती है, चाहे टीचर्स हों या पेरेंट्स, सब हमसे यह उम्मीद करते हैं कि हम उनकी हर बात के लिए हमेशा ‘हाँ’ में ही सिर हिलाएं। हमारी सहमती और हमारी विनम्रता – इन दोनों के बीच की रेखा बहुत ही धुंधली है। साइकोथैरेपिस्ट अनुषा मंजानी कहती हैं, “यदि बच्चों को यह लगने लगे कि ‘हाँ’ कहने से उन्हें शाबाशी मिलेगी और ‘ना’ कहने से सज़ा, तो बच्चे यह सीख सकते हैं कि ‘हाँ’ कहना हमेशा लोगों को खुश करता है।”
एक टीनेजर की उम्र में, रिया पिंटो को यह सिखाया गया था कि अगर किसी शादी में शामिल होने पर, उनकी ही टेबल पर बैठे कोई जेंटलमैन, उसे डांस करने के लिए कहें, तो सभ्यता दिखाते हुए उसे डांस करना चाहिए। सालों बाद, अब वह इस बात को स्वीकार करती है कि उस वक़्त उसे ऐसा महसूस होता था जैसे ख़ुद अपने ही शरीर पर उसका कोई हक़ नहीं है, और न ही इस मामले में कोई पसंद या नापसंद। लेकिन अब हमारी मिलेनियल जेनरेशन और उनके बच्चों की सोच भी अलग है और रास्ते भी।
गायत्री लतीफ़, जो खुद एक 2 साल के बच्चे की मां हैं, कहती हैं, “जब मैं बच्ची थी, तब घर में किसी भी कायदे-कानून को इसलिए मानना पड़ता था क्योंकि— ‘मैंने (मम्मी ने) ऐसा कहा है’। हालांकि ऐसा नहीं था कि आँख मूँद कर हर आज्ञा का पालन किया जाए, लेकिन बड़ों द्वारा बनाए गए रूल्स को मानना हमारे घर का एक कायदा था। अब, जब मैं खुद एक बेटे की मां हूँ, मुझे लगता है कि हमें बच्चों को अपने-आप, छोटी-छोटी चीजों के बारे में फैसले लेने की छूट देनी चाहिए। इससे उनमें सही-गलत की समझ पैदा होती है, साथ ही वह यह सीखते हैं कि यदि किसी बात से सहमत ना हों तो ‘ना’ कैसे कहें। उनकी बात मानते हैं तो उन्हें लगता है कि हम उनके फ़ैसलों की कद्र करते हैं।” लतीफ़ इस बात को भी मानती हैं कि हर परिवार को कुछ सीमाएं तय करनी चाहिए, जिसमें रहकर बच्चों को इस बात की छूट हो कि वे कुछ बातों के लिए ‘ना’ भी कह सकें। वे कहती हैं, “मेरा बेटा तो ज़्यादातर ऐसी ऊटपटांग चीजों के बारे में भी ‘नहीं’ कहता रहता है जैसे – प्लेट में चावल नहीं खाएगा, क्योंकि गिलास में खाना है (और फिर उसने ऐसा किया भी)।”
नेहा छाबरिआ, एक 3 साल के बच्चे की मां, का मानना है कि बच्चे जो देखते हैं, वही सीखते हैं। अगर वे अपने मां-बाप को हर बात में दूसरों के सामने ‘हां जी, हां जी’ करते देखेंगे, तो वे भी वैसा ही करेंगे। नेहा अपने बच्चे को सिखाती हैं, अनजान लोगों को या उन्हें जो उसके करीबी ना हों, अगर उसे ऐसा लगता है कि उसे किसी बात के लिए ‘मना’ करना चाहिए, तो वह बेझिझक ऐसा कर सकता है। वे कहती हैं, “हमने ‘गुड टच’ और ‘बैड टच’ के बारे में भी बात की है, आजकल के हालात में यह जानकारी बहुत अहम है। यह ज़रूरी है कि हम बहुत कठोर नियम न बनाएं, अपने बच्चों की बातें सुनें, बच्चों के ‘हाँ’ या ‘ना’ कहने के फ़ैसलों की इज़्ज़त करें और उन्हें सिखाएं कि उन्हें हमेशा अपनी इनट्यूशन पर भरोसा करना चाहिए।
खुद को ‘हां’ कहें
मंजानी इस बात पर भी ज़ोर देती हैं, “हम एक ऐसे मिले-जुले समाज में रहते हैं जिसमें परिवार और समाज को हमेशा व्यक्ति की अपनी ज़रूरतों से ऊपर रखा जाता है। वयस्क होते-होते हम पूरी तरह इस व्यवहार में ढल चुके होते हैं। खासकर औरतों के मामले में तो यह बात और भी सही है जिनसे यह उम्मीद की जाती है कि वे सामाजिक-संबंधों को निभाएंगी। यही नहीं, उन्हें बहुत छोटी उम्र से ही अपनी भावनाओं के ऊपर दूसरों की भावनाओं को प्राथमिकता देना सिखाया जाता है। उनके दिमाग में शुरू से ही यह ठूँस-ठूँस कर भर दिया जाता है कि किसी बात के लिए ‘ना कहना’ या ‘गुस्सा दिखाना’ बिल्कुल गलत और ‘स्त्री-धर्म’ के ख़िलाफ़ है।”
हालांकि, आजकल के शहरी मिलेनियल इस लिंग-भेद के दलदल से काफ़ी ऊपर उठ चुके हैं, लेकिन लगातार ज़िन्दगी की जद्दोजहद से जूझते रहने और सब कुछ पा लेने की चाह ने, लोगों में एंग्जायटी, तनाव और गिरते हुए आत्म-विश्वास को बढ़ावा दिया है। यहां तक कि अगर आप कुछ न करना चाहते हों, तब भी, ‘अरे कहीं हमारे रिश्ते न बिगड़ जाएं’ या ‘कहीं मेरी नौकरी न चली जाए’, यह डर और अपराधबोध हमें हमेशा ‘हाँ-हाँ’ करने को मजबूर कर देता है।
एक्टर और कवियत्री प्रिया मलिक भी स्वीकार करती हैं, “युवा लड़कियों को दबंग बनने के लिए मेरी पहली टिप यही है कि उन्हें ‘ना’ कहना सीखना चाहिए। अगर आप बिना अपराधबोध महसूस किए, किसी की रिक्वेस्ट को ठुकरा सकते हैं — क्योंकि आपके पास टाइम नहीं है या आप उसमें दिलचस्पी न रखते हों, तो यही ‘अपनी परवाह’ करने का सबसे बड़ा तरीका है। उम्मीद करती हूँ कि काश मेरी बॉस भी यह पढ़ रही हो।”

साइकोथैरेपिस्ट अनुषा मन्जानी के अनुसार – ‘ना ‘ कैसे कहें
थोड़ा समय लें: जल्दबाज़ी में ‘हां’ या ‘ना’ न कहें, बल्कि ये कहें कि इस प्रस्ताव/ मसले के बारे में सोचने के लिए आपको कुछ समय चाहिए। आप कह सकते हैं, “मुझे क्या करना चाहिए, क्या इस निर्णय पर मैं ज़रा सोच-विचार कर फिर आपसे बात करूँ?”
ज़रूरत से ज़्यादा सफाई न दें: भले ही यह आप काम के बारे में हो या आपसी-संबंधों के बारे में, यह ज़रूरी है कि आप अपने-आप में निश्चित हों। बेवजह अपनी सफाइयां न देते फिरें।
अपने आप पर फ़ोकस कीजिए: किसी बात के लिए इंकार करने का मतलब, किसी और व्यक्ति या परिस्थिति के बारे में नहीं, बल्कि उसमें आपकी दिलचस्पी न होने या उसे करने की इच्छा न रखने, अथवा उसे करने में दिक्कत महसूस करने के बारे में है। “इस काम के लिए शायद मैं सही व्यक्ति नहीं हूँ, मेरे ख़याल से कोई और इसके लिए ज़्यादा अच्छा रहेगा; मैं इस काम को करने में कंफर्टेबल नहीं हूँ और इसे करना नहीं चाहती; मुझे ऐसा लगता है कि इसे करने में मुझे कुछ मज़ा नहीं आएगा तो मैं इसे फिलहाल नहीं करना चाहूंगी”— ऐसा कह कर आप किसी काम को टाल सकते हैं।
सीधे मना करने की जगह कोई और विकल्प दें: जब काम की बात होती है तो हमेशा सीधे-सीधे ‘ना’ कहना सही तरीका नहीं है। तो आप इस तरह की स्ट्रैटेजी अपना सकते हैं कि, “इस वीकेंड मैं काम नहीं कर पाऊंगी लेकिन अगले हफ़्ते पक्का मैं यह कर सकती हूँ / मैं पूरा इवेंट तो अटेंड नहीं कर पाऊंगी, पर एकाध घंटे के लिए ज़रूर आऊंगी।” इसी तरह दोस्ती में, अगर फ्रेंड की शादी में आप ‘ब्राइड्समेड’ नहीं बनना चाहतीं, तो दूसरे कामों में अपनी कलाकारी दिखाएं— जैसे फ़ोटोग्राफ़ी करने का ऑफ़र दें, फूलों का अरेंजमेंट कर दें, शादियों में अचानक रिश्तेदारों के बीच हो जाने वाली नौटंकियों को संभालने या उन्हें इधर-से-उधर लाने-ले-जाने की ज़िम्मेदारी संभाल लें — और मैं गारंटी देती हूँ कि ऐसा करने पर आपकी प्यारी दोस्त कभी भी आपसे नाराज़ नहीं रह पाएगी।